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स्वरूप- संबोधन - परिशीलन
ई. 1812 में पं. जयचन्द्र छाबड़ा ने भाषा वचनिका आदि टीकाएँ लिखी हैं। - जै. सि. को., भाग 2, पृ. 270 ज्ञानावरण- जीव के ज्ञान को आवृत करने वाले एक कर्म-विशेष का नाम ज्ञानावरणीय है। जितने प्रकार के ज्ञान हैं, उतने ही प्रकार के ज्ञानावरणीय कर्म भी हैं और इसीलिये इस कर्म के संख्यात व असंख्यात भेद स्वीकार किये गये हैं। ज्ञानावरण-कर्म के सामान्य से निम्न पाँच भेद (प्रकृतियाँ) हैं— मतिज्ञानावरणीय, श्रुतज्ञानावरणीय, अवधिज्ञानावरणीय, मनः- पर्ययज्ञानावरणीय और केवलज्ञानावरणीय ।
- जै. सि. को., भाग 2, पृ. 270 ज्ञायक- ज्ञाता का जो त्रिकाल - गोचर शरीर है, वह ज्ञायक शरीर नो-आगम द्रव्य जीव है । - जै. सि. को., भा. 2, पृ. 598 ज्ञेय - सामान्य विशेषात्मक वस्तु को ज्ञेय कहते हैं या जो ज्ञान के द्वारा जाना जाए, वह ज्ञेय है।
परिशिष्ट-2
पचास धनुष थी। शरीर की आभा श्वेत थी । इनके समवसरण में दत्त आदि 93 गणधर, लगभग तीन लाख मुनि, तीन लाख अस्सी हजार आर्यिकाएँ, तीन लाख श्रावक व पाँच लाख श्राविकाएँ थीं। इन्होंने सम्मेदशिखर से निर्वाण प्राप्त किया था । - जै. द. पा. को ., पृ. 93 चार्वाक्- सर्व-जन-प्रिय होने के कारण इसे “चार्वाक्” संज्ञा प्राप्त है। सामान्य लोगों के आचरण में आने के कारण इसे 'लोकायत' कहते हैं। आत्मा व पुण्य-पाप आदि का अस्तित्व न मानने के कारण यह मत 'नास्तिक' कहलाता है। धार्मिक क्रियानुष्ठानों का लोप करने के कारण यह अ- प्रक्रिया- वादी है। इसके मूल प्रवर्तक 'बृहस्पति आचार्य' हुए, जिन्होंने 'बृहस्पति सूत्र' की रचना की थी । आज यह कि इस मत का अपना कोई 'साहित्य' उपलब्ध नहीं हैं, परन्तु ई. पूर्व 550-500 के अजितेश कम्बली कृत बौद्ध सूत्रों तथा महाभारत - जैसे प्राचीन ग्रन्थों में भी इसका उल्लेख मिलता है । इनके साधु 'कापालिक ' होते हैं। अपने सिद्धान्त के अनुसार वे मद्य व मांस का सेवन करते हैं।
- जै. द. पा. को ., पृ. 106 घातिया कर्म- जीव के गुणों का घात करने वाले अर्थात् गुणों को ढकने वाले या विकृत करने वाले ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, अन्तराय और मोहनीय - इन चार कर्मों को घातिया कर्म कहते हैं।
- जै. द. पा. को., पृ. 91 च
चन्द्रप्रभ/ चन्द्रप्रभु- अष्टम तीर्थंकर। इनका जन्म इक्ष्वाकुवंशी राजा महासेन और रानी लक्ष्मणा के यहाँ हुआ । इनकी आयु दस लाख वर्ष पूर्व और शरीर की ऊँचाई एक
- जै. सि. को., भा. 2, पृ. 294 चेतना (चेतनत्व) - अनुभव रूप भाव का नाम चेतना है या जिस शक्ति के द्वारा आत्मा ज्ञाता-दृष्टा या कर्ता-भोक्ता होता है, उसे चेतना कहते हैं। चेतना जीव का स्वभाव है। चेतना तीन प्रकार की मानी गई है - ज्ञान - चेतना, कर्म-चेतना, कर्म-फलचेतना ।
- जै. द. पा. को., पृ. 95