________________
2321
स्वरूप-संबोधन-परिशीलन
परिशिष्ट-2
अष्टशती, आचार्य विद्यानन्दि द्वारा उस परिणाम या भाव को भावास्रव कहते हैं 'अष्टसहस्री, आचार्य वादीभसिंह द्वारा और सूक्ष्म कर्म-रूप पुद्गलों का आना 'कृत-वृत्ति', आचार्य वसुनन्दि द्वारा द्रव्यास्रव कहलाता है। साम्परायिक आस्रव ‘कृत-वृत्ति और पं. जयचन्द्र छाबड़ा द्वारा और ईर्या-पथ आस्रव -ऐसे दो भेद भी संक्षिप्त भाषा टीका नामक टीकाएँ हुई हैं। . आस्रव के हैं। -जै.सि.को., भा. 1, पृ. 258
___-जै.द. पारि. को., पृ. 43 आयु-कर्म- जीव के किसी विवक्षित शरीर में टिके रहने की अवधि का नाम 'आयु' है। इस आयु का निमित्त-भूत कर्म आयु-कर्म
उत्तरचर-हेतु- अनुमान प्रमाण के अंगों में कहलाता है। .
हेतु का सर्व-प्रथम स्थान है, क्योंकि इसके -जै.ध. द., पृ. 150
बिना केवल-विज्ञप्ति, उदाहरण आदि से आरंभ- 1. कार्य करने लगना सो आरंभ
साध्य की सिद्धि नहीं हो सकती। इस है। 2. प्राणियों को दुख पहुँचाने वाली प्रवृत्ति करना आरंभ है।
लक्षण की विपरीत आदि रूप से वृत्ति होने -जै.सि. को., भा. 1, पृ. 284
पर वे हेतु स्वयं हेत्वाभास बन जाते हैं। आलाप-पद्धति- आचार्य देवसेन (ई. उत्तरचर-हेतु का उदाहरण- एक मुहूर्त के 893-943) द्वारा संस्कृत गद्य में रचित पहले भरणी का उदय हो चुका है, क्योंकि प्रमाण व नयों के भेद-प्रभेदों का प्ररूप इस समय कृत्तिका का उदय अन्यथा नहीं ग्रन्थ।
हो सकता; यहाँ कृत्तिका का उदय -जै.सि. को., भा. 1, पृ. 290 उत्तरचर-हेतु है; कारण- कृत्तिका का उदय आस्तिक्य- सच्चे देव, शास्त्र, गुरु और भरणी के उदय के बाद होता है और तत्त्व के विषय में “यह ऐसे ही हैं" इसलिए वह उसका उत्तरचर होता हुआ -इसप्रकार का आस्था-भाव रखना। उसको जानता है। सम्यग्दृष्टि जीव का आस्तिक्य-गुण है।
___-जै.सि. को.. भा. 4, पृ. 540-541 ___-जै.द. पारि. को., पृ. 43 उत्पाद- द्रव्य का अपनी पूर्व अवस्था को आसव- पुण्य-पाप-रूप कर्मो के आगमन छोड़कर नवीन अवस्था को प्राप्त करना को आस्रव कहते हैं। जैसे- नदियों के उत्पाद कहलाता है। द्वारा समुद्र प्रति-दिन जल से भरता रहता
-जै.द. पारि. को. पृ. 50 है, इसीतरह मिथ्यादर्शन आदि स्रोतों से उदय- जीव के पूर्व-कृत जो शुभ या आत्मा में निरंतर कर्म आते रहते हैं। आत्मा अशुभ कर्म उसकी चित्त-भूमि पर अंकित के जिस परिणाम या भाव से सूक्ष्म पुद्गल पड़े रहते हैं, वे अपने-अपने समय पर परमाणु-कर्म-रूप होकर आत्मा में आते हैं, परिपक्व-दशा को प्राप्त होकर जीव को