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परिशिष्ट-2
स्वरूप-संबोधन-परिशीलन
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अन्तराय-कर्म- जिस कर्म के उदय से दानादि कार्य में बाधा उत्पन्न होती है, उसे अन्तराय कर्म कहते हैं। दानान्तराय, लाभान्तराय भोगान्तराय उपभोगान्तराय और वीर्यान्तराय, -ये पाँच अन्तराय-कर्म के भेद हैं।
-जै.द.पारि.को., पृ. 17 अन्वय- अपनी जाति को न छोड़ते हुए उसी रूप से अवस्थित रहना अन्वय है। सत्ता, सत्त्व सत्, सामान्य, द्रव्य, अन्वय, वस्तु, अर्थ और विधि ये-सब शब्द अविशेष रूप से एकार्थवाचक हैं।
-जै.सि.को., भा. 1, पृ. 115 अभाव- जैनदर्शन में वस्तु का सर्वथा अभाव नहीं माना गया, भावान्तर-स्वभाव-रूप ही अभाव माना गया है। जैसे- मिथ्यात्व पर्याय से अभाव का सम्यक्त्व-पर्याय रूप से प्रतिभास होता है। अभाव चार प्रकार का है- प्रागभाव, प्रध्वंसाभाव, अन्योन्याभाव और अत्यन्ताभाव।
-जै. द. पा. को., पृ. 22 अमूर्त- जिसमें रूप, रस, गन्ध और स्पर्श, -ये चारों गुण नहीं पाये जाते हैं, उसे अ-मूर्त या अ-रूपी कहते हैं। पुद्गल द्रव्य को छोड़कर शेष पाँच द्रव्य अमूर्त या अरूपी हैं।
-जै. द. पारि. को., पृ. 24 अमृतचन्द्र (आचार्य)- आप एक प्रसिद्ध । आचार्य हुए हैं। समय ई. 905-955 । कृतियाँ- 1. समयसार पर आत्म ख्याति टीका, 2. प्रवचन-सार पर तत्त्व-दीपिका -टीका, 3. पंचास्तिकाय पर तत्त्व
प्रदीपिका टीका, 4. परमाध्यात्म-तरंगिनी, 5.पुरुषार्थसिद्धयुपाय, 6. तत्त्वार्थ सार, तथा 7. लघु-तत्त्व-स्फोट।
-जै. सि. को., भा. 1, पृ. 133 | अम्बावरीष- (भवन-वासी देवों के अन्तर्गत असुरकुमार जाति का एक भेद)- अम्बावरीष जाति के असुर देव अत्यन्त निर्दय स्वभाव वाले होते हैं। अनेक सुख-साधनों के रहने के बाद भी इन्हें नारकियों को परस्पर लड़ाने में आनन्द आता है।
-जै. त. वि., पृ. 77 अम्बिका- बाइसवें तीर्थकर नेमिनाथ की यक्षी आम्रा या अम्बिका है। इस देवी के अनेक नाम हैं। इस यक्षी का वाहन सिंह है।
___ -जै. त. वि., पृ. 100 अयोगकेवली- तेरहवें गुणस्थान-वर्ती स-योगकेवली भगवान् जब अपने जीवन के अंतिम क्षणों में विशुद्ध ध्यान के द्वारा मन-वचन-काय की समस्त क्रियाओं का निरोध कर देते हैं, तब योग से रहित इस अवस्था में पहुँचकर वे अ-योग-केवली-जिन कहलाते हैं। यह अंतिम चौदहवाँ गुणस्थान है।
___-जै. द. पारि. को., पृ. 24 अर्थ-पर्याय- अगुरुलघु-गुण के निमित्त से छह प्रकार की वृद्धि एवं हानि रूप से जो प्रति-क्षण पर्यायें उत्पन्न होती हैं, उन्हें अर्थपर्याय कहते हैं।
-जै. लक्ष., भा. 1, पृ. 129 अर्हन्त- जो वीतराग, सर्वज्ञ और हितोपदेशी हैं, वे अर्हन्त परमेष्ठी कहलाते हैं। अर्हन्त परमेष्ठी तीनों लोकों में पूज्य होते हैं।
-जै. द. पा. को., पृ. 27