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श्लो. : 26
स्वरूप-संबोधन-परिशीलन
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अंत-मंगल-रूप 26वाँ श्लोक
उत्थानिका- यहाँ अब ग्रंथांत में शिष्य आचार्य-भगवन्त के पादारविन्द में अंतिम जिज्ञासा प्रकट करता है कि भगवन्! इस ग्रंथ को श्रवण करने एवं व्याख्यान करने से क्या लाभ होता है?....
समाधान- आचार्य-देव शिष्य की विनय-गुण-सम्पन्न कुशल पृच्छना को सुनकर प्रसन्न-चित्त होकर समाधान करते हैं
इति स्वतत्त्वं परिभाव्य वाङ्मयम्, य एतदाख्याति शृणोति चादरात्। करोति तस्मै परमात्मसम्पदम्,
स्वरूप-सम्बोधन-पञ्चविंशतिः ।। अन्वयार्थ- (इति) इस पूर्वोक्त प्रकार से, (यः) जो व्यक्ति, (एतत्) इस, (वाङ्मयम्) वाचनिक-शास्त्र में निबद्ध, (स्वतत्त्वं) अपने आत्म-तत्त्व को, (परिभाव्य) पूरी तरह विचार करके, (आदरात्) आदर से, (आख्याति) वाँचता है, (च) और/या (शृणोति) सुनता है, (तस्मै) उसके लिए या उसको, (स्वरूप-सम्बोधन-पंचविशतिः) यह पच्चीस श्लोक परिमाण वाला व आत्म-स्वरूप का बोध कराने वाला स्वरूपसम्बोधन ग्रन्थ, (परमात्मसम्पदम्) उत्कृष्ट-आत्म-रूप परमात्म-सम्पत्ति को, (करोति) प्रदान करता है। 126 ||
परिशीलन- आचार्य-प्रवर द्वादशांग-वाणी की महिमा का बहुत ही सुंदर व्याख्यान कर रहे हैं। लोक में ज्ञान से बड़ी कोई सम्पत्ति नहीं है, जो पुरुष श्रुत-सागर में केलि (क्रीडा) करता है, वह संसार से उत्तीर्ण हो जाता है, जिन-वचनों की महिमा अलौकिक है, सुर-शिवत्व की दायक भगवती जिनवाणी है, सम्यग्दृष्टि जीव श्रुत की आराधना करके सुर-पद को प्राप्त होते हैं और चरम शरीर के धारक भव्य जीव शिवत्व को प्राप्त होते हैं। मिथ्यादृष्टि जीव भी यदि भद्रपरिणामों से युक्त होकर अर्हत्-सूत्र की आराधना करता है, तो वह भी मन्द कषाय से सुर-असुर-अवस्था को प्राप्त होता है, जिन-वचन की आराधना कभी विफल नहीं होती, इस लोक में परम औषधि जिन-वचन ही है, जैसा कि कहा भी गया है