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श्लो. : 24
स्वरूप-संबोधन-परिशीलन
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श्लोक-24
उत्थानिका- शिष्य जिज्ञासा करता है गुरुदेव से- भगवन्! लोक में स्व-पर-वस्तु का ज्ञान कर और-क्या करें, जिससे कि हम शीघ्र शिव-गामी बनें? समाधान- आचार्य-भगवन् कहते हैं
स्वं परं विद्धि तत्रापि, व्यामोहं छिन्धि किन्त्विमम् ।
अनाकुलस्वसंवेद्ये', स्वरूपे तिष्ठ के वले ।। अन्वयार्थ- (स्वं) अपनी आत्मा को, (परं) शरीर आदि अन्य पदार्थ को, (विद्धि) समझो, (किन्तु) किन्तु, (तत्र अपि) ऐसा होने पर भी, (इमम्) इस भेद-भावात्मक, (व्यामोह) लगाव पक्ष को भी, (छिन्धि) दूर कर दो, (केवले) केवल, (अनाकुलस्वसंवेद्ये) निराकुलता रूप स्वानुभव से जानने-योग्य, (स्वरूपे) अपने रूप में, (तिष्ठ) ठहर जाओ | 24||
परिशीलन- आचार्य-भगवन् अकलंक स्वामी एक-से-एक, अभिनव-अभिनव मोती-मणि भव्यों के लिए कण्ठ-हार हेतु प्रदान कर रहे हैं, तत्त्व की अविरल-धारा में प्रवामान अन्तःकरण की शुद्धि का पावन-साधन तत्त्व-चिन्तवन ही है, बिना तत्त्व-चिन्तवन के चित्त-शुद्धि सम्भव नहीं है, चित्त-शुद्धि के बिना चारित्र-शुद्धि नहीं, चारित्र-शुद्धि के बिना आत्म-शुद्धि एवं आत्म-सिद्धि नहीं होती। साधक को सर्व-प्रथम चाहिए कि वह चित्त की शुद्धि करे; चित्त को विषय-कषाय एवं उनके निमित्तों से पूर्ण-रूपेण पृथक् रखे; प्रत्येक स्थिति में चित्त की उनसे रक्षा करे, बिना विषय-कषाय से रक्षा किये वस्तु-स्वरूप का निर्णय भी नहीं हो सकता, सबसे बड़ी अज्ञानता विषय-कषाय में चित्त का भ्रमण करना ही है। चाहे कितने ही ग्रन्थों का श्रवण-पठन कर लिया हो, सम्पूर्ण-श्रुत को कण्ठस्थ कर लिया हो, तब भी अज्ञान-दशा ही समझो, -यह तो श्रुत की बात कही है, वह शब्द-श्रुत-मात्र है, विषय-कषाय से शून्य अवस्था चिद्-स्वरूप में लीन रहना ही सत्यार्थ भाव-श्रुत है, वही ज्ञान-दशा है। ज्ञानियो! भाव-श्रुत, भाव-व्रत ही साधकतम साधन है, लोक में ऐसे अनेक जीव हैं, जो-कि शब्द-ज्ञान के कोश से संतुष्ट हैं, शास्त्र पढ़ने मात्र से अपना मोक्ष-मार्ग पूर्ण समझते
1. निम्नांकित पाठान्तर और हैं- अ. 'अनाकुलः स्वसंवेद्य-स्वरूपे', ब. 'अनाकलं स्वसंवेद्य-स्वरूपे'।