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1921
स्वरूप-संबोधन-परिशीलन
श्लो . : 22
लिये आत्म-तीर्थ फलित नहीं होगा, भवनों की आकांक्षा का त्यागकर आत्मा को ही तीर्थ देखना है। आकांक्षा संसार-वृद्धि का सुन्दर बीज है, मुमुक्षुओ! ध्यान रखोआचार्य योगीन्दुदेव ने भी कहा है कि आकांक्षाओं की आकांक्षा से मोक्ष मिलने वाला नहीं है
मोक्खु म चिंतहि जोइया, मोक्खु चिंतउ होई। जेण णिवद्धउ जीवड्डउ, मोक्खु करेसइ सोई।।
_ -परमात्मप्रकाश, 2/188 अर्थात् हे योगी! मोक्ष की भी चिंता मत करो, क्योंकि मोक्ष चिंता से नहीं होता है, जिनसे जीव बँधा है, वे ही उसका मोक्ष करेंगे अर्थात् उनके अभाव का नाम ही मोक्ष है।
कर्म-बन्ध के कारणों से दूर रहना चाहिए और कर्म-हानि के कारणों में संलग्न रहना चाहिए। बन्ध को छेदने के लिए प्रति-क्षण अप्रमत्त रहना चाहिए, प्रमादी तो बँधता है, आत्म-पुरुषार्थी छूटता है, सत्यार्थ-पुरुषार्थ को जीव भूल रहा है, नाना प्रकार के प्रपञ्चों में लोग मोक्ष की खोज कर रहे हैं, क्या वे मोक्ष के कारण हैं? ... ..अरे ज्ञानी! वे मोक्ष के कारण नहीं हैं, वे तो मोह के कारण हैं, -ऐसा समझो। मोक्ष का कारण तो रत्नत्रय-धर्म है, उसी की आराधना करना मुमुक्षु का कर्तव्य है। भव्य-तत्त्व-ज्ञानी जीव ने विषयों की लिप्सा तो पूर्व में ही छोड़ दी है व राग-द्वेष के निमित्तों से अपनी आत्म-रक्षा के साथ प्रति-पल कल्याण-मार्ग पर अग्रसर रहता है।
ज्ञानियो! विषयों की आकांक्षा तो दूर है, मोक्ष की अभिलाषा भी मोक्षदायिनी नहीं है, जहाँ मोक्ष की इच्छा भी समाप्त हो जाती है, वहीं मोक्ष प्राप्त होता है, इसलिए जो सत्यार्थ में हितान्वेषी जीव है, उसे किसी भी प्रकार की आकांक्षा नहीं करनी चाहिए। आकांक्षा मोक्षमार्गी के लिए अमर-बेल-जैसी है, जो कि हरे-भरे वृक्ष पर चढ़ती है, स्वयं हरी-भरी रहती है, परंतु वृक्ष को सुखा देती है, उसीप्रकार आकांक्षा आत्म-धर्म को सुखा देती है और स्वयं हृदय-पटल में निवास करती है तथा साधक को वीतराग-मार्ग से च्युत करा देती है, इसलिए हे भव्य जीव! आकांक्षा का त्याग करो।।२२।।
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