________________
190/
स्वरूप-संबोधन-परिशीलन
श्लो. : 22
भावों के बाण मार रहा है। क्यों मनीषियो! मृग-घातक का भी मोक्ष होता है क्या?.. यदि होता है, तो-फिर नरक किसका होगा?... प्रश्न करो- जैसे- मृगघाती का तद्भव मोक्ष नहीं, जब-तक घात का त्याग नहीं करता, उसीप्रकार विशुद्ध आचार-विचार व परिणामों के घाती का मोक्ष नहीं होता है, बगुला धवल होता है, दिन-भर शीतल सरोवर में रहता है, फिर भी मछली-भक्षण नहीं छोड़ता, उसीप्रकार ढोंगी जीव धवल वर्ण को प्राप्त करके भी शुभ-भावों का नाश करते हैं, वक्वृत्ति मोक्ष-दायिनी नहीं होती। निर्वाण-श्री की इच्छा है, तो दृष्टि को हंस बनाना पड़ेगा, जो कि क्षीर-नीर को भिन्न करता है, सम्यक्त्व-भाव में लीन पुरुष निज चैतन्य-भगवान् आत्मा को अत्यंत भिन्न निहारता है, हंसात्मा ही परमात्म-पद को प्राप्त होता है। ध्रुव परमात्मा, जो-कि त्रैलोक्य-पूज्य, परिपूर्ण, विशुद्ध, अमल, विमल, अनुपम है, की प्राप्ति कैसे होगी?... इस बात पर चिन्तवन करने के लिए आचार्य-प्रवर सहज प्रेरित कर रहे हैं, परम पारिणामिक, टंकोत्कीर्ण, ज्ञायक-स्वभाव की उपलब्धि आकांक्षा से नहीं होगी, वह परम-निरीह-वृत्ति से होगी, बिना निस्पृहता के निर्विकल्प-ध्यान नहीं घटित होता और निर्विकल्प-ध्यान के अभाव में क्षपक-श्रेणी का आरोहण नहीं होता, श्रेणी-आरोहण के बिना निर्वाण भी नहीं होता, अहो ज्ञानियो! मोक्ष की आकांक्षा से जब मोक्ष नहीं मिलता, तो-फिर उन विषयान्धों से पृच्छना करो- आकण्ठ-निमग्न विषयों की कामना में रात-दिन एक ही भाव है कि कैसे इन्द्रिय-विषयों की पुष्टि हो, उन्हीं के योग्य सामग्री की खोज चल रही है, अर्थ-काम-पुरुषार्थ में ही सम्पूर्ण पुरुष की शक्ति का व्यय चल रहा है।
कामाभिलाषा में मदोन्मत्त हुआ न दिन देखता है, न रात; न सबंधों की पवित्रता का विवेक और न क्षेत्रों की निर्मलता का ध्यान, न कर्म-बन्ध से भय है, न लोक-मर्यादा का डर! विषय-सेवन कितना कर पाता है, जबकि विषयाभिलाषा कितनी है?... ज्ञानियो! कामाभिलाषी जाति, कुल, धर्म का भी विवेक खो-बैठता है। कमल-नयनी जिसके नेत्रों में वास कर रही हो, वहाँ पर-ब्रह्म, अद्वैत-शुद्धात्म दृष्टिगोचर होगा क्या?... ऊसर भूमि में अंकुरण नहीं होता, विषयाकांक्षी के वीतरागता का अंकुरण नहीं होता। काम-दृष्टि एवं अर्थ-दृष्टि दोनों ही अनर्थ-दृष्टियाँ हैं। लोक में जितने भी संघर्ष हुए हैं और हो रहे हैं एवं भविष्य में भी होंगे, वे सब काम-दृष्टि के कारण हुए और होंगे। वीतराग-मार्ग से पतित होने का कारण भी आकांक्षा है, इच्छा करने से संसार-सुख भी प्राप्त नहीं होते, वे भी अन्तराय-कर्म के क्षयोपशम से प्राप्त होते हैं,