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स्वरूप- संबोधन - परिशीलन
श्लो. : 21
किञ्चित् भी निज ब्रह्म-भाव से यदि पर-भावों में परिणति ले जाते हो, तो ध्यान रखना- चित्त चारित्रवान् तो रह सकता है, पर क्या भाव - चारित्रवान् रह पाओगे, जब चारित्र ही गया, तब अन्य जाने को क्या बचा ? ... योगी की सम्पत्ति तो चारित्र ही है । भोगी के पास में बाह्य पर - पदार्थों की सम्पत्ति बहुत हुआ करती है, वे मोह -वश भिन्न द्रव्यों के संयोग-वियोग में हर्ष-विषाद करते हुए दिखते हैं, जबकि धुव्र सत्य यह है, यह राग-मोह का योग है, ये दोनों समाप्त हो जाएँ, तो भोग-सामग्री के संग्रह - रक्षण की मूर्च्छा समाप्त हो जाएगी, जब मूर्च्छा चली जाएगी, तब विश्वास रखना- सम्पूर्ण पर-पदार्थों की तृष्णा चली जाएगी, तृष्णा गई, यानी कि संसार-भ्रमण भी गया । लोक में भिन्न पर- द्रव्यों के कारण पिता-पुत्र, पति-पत्नी, माता-पुत्री में भी विसंवाद देखा जाता है, आत्म- न्याय को भूलकर सगे-संबंधी न्यायालय में एक-दूसरे के प्रति अन्याय की बात करते हैं, कोई समझदार वहीं पूछ ले कि ये कौन हैं? ..तो ज्ञानी ! आँख नम हो जाएगी, है कौन ?... जन्म देने वाली माँ है, अहो अर्थ! तुझे धन्यवाद है, जो कि तूने अपने राग में जननी- जैसे संबंध को दुग्ध में नीबू की बूँद के सदृश क्षार-क्षार कर दिया, क्या है तृष्णा की महिमा, जो कि मैत्री भाव को पूर्ण नष्ट करा देती है। तृष्णा का उदर बहुत विशाल है, धन की तृष्णा, सम्मान की तृष्णा, पद-प्रतिष्ठा की तृष्णा, उपलब्धियों की तृष्णा, परिवार - वृद्धि की तृष्णा, संघ- वृद्धि की तृष्णा, संग- वृद्धि की तृष्णा, ज्ञानियो! ये तृष्णाएँ भव-भ्रमण में कारण हैं। तृष्णा करने से नियम से संसार - वृद्धि को प्राप्त होगा, संसार की वृद्धि होगी, तो जीव कहाँ रहेगा? नियम से भव-भ्रमण होगा। जिन जीवों को संसार की अनुभूति दीर्घ काल तक लेना हो, वे स्वप्न में भी तृष्णा का त्याग नहीं करें। कारण कि तृष्णा कम होने से कषाय में मंदता आती है, काषायिक मन्दता होते-होते क्षीण - कषाय अवस्था तक जीव का प्रवेश हो जाता है, जो जीव क्षीण - कषाय - गुणस्थान में पहुँच जाता है, वह अब पुनः नीचे गुणस्थान में नहीं आएगा, नियम से संसारातीत अवस्था को प्राप्त कर अशरीरी परमात्मा बन जाएगा और तब सम्पूर्ण नाना रूपताएँ (संसार की ) नाश को प्राप्त हो जाएँगी, दीर्घ-संसार-नीर चुल्लु-प्रमाण हो जाएगा, फिर वह शाश्वत धाम में प्रवेश कर जाएगा, जहाँ अरस, अरूप, अगंध, अव्यक्त, अलिंगी -दशा सहज प्रकट हो जावेगी, फिर आत्मा टंकोत्कीर्ण, ज्ञान-घन, आनंद - कन्द, ज्ञायक-भाव में त्रैकालिक लवलीन होगी, सम्पूर्ण विकल्प-जाल के कारण जो कर्म-बन्ध था, जब वही समाप्त हो जाएगा, फिर सदा-सदा के लिए दुःख- संतति का वियोग हो जाएगा, अखण्ड चिद्रूप
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