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स्वरूप- संबोधन - परिशीलन
श्लो. : 21
को ही भूल जाता है, जिसके प्रसाद से उत्तम देह, देश-धर्म एवं धर्मात्माओं का संयोग प्राप्त है । नाना प्रकार के असत्य भाषण भी तृष्णा के ही कारण होते हैं, शील-धर्म के घात का कारण विषय- तृष्णा ही तो है । तृष्णातुर द्रव्य की प्राप्ति में दुःखी रहता है, यदि नियोग-वश प्राप्त हो भी जाये, तो उसके रक्षण में दुःखी होता है, द्रव्य कोई भी कमा ले, पर भोग तो भाग्यवान् ही करता है, आगम- इतिहास साक्षी है। शंभूकुमार ने एक धान्य का नियम लेकर चंद्रहास खङ्ग - सिद्ध किया, सिद्ध भी हो गया, परन्तु देखो - लाभान्तराय एवं भोगान्तराय का तीव्र उदय कि घोर साधना के उपरान्त सिद्ध हुआ खङ्ग प्रबल - पुण्यात्मा नारायण - लक्ष्मण के हाथ लगा और जिसने सिद्ध किया था, उसके ही सिर को अलग कर दिया, यानी शंभूकुमार के घात का ही कारण हो गया, यह हुआ न्याय । ज्ञानियो! ध्यान दो- तृष्णा से अर्थ-संग्रह करने का लाभ तीव्र राग, क्लेश, नरक आयु का आस्रव ही समझो, व्यक्ति पर के लिए कमा कर रख जाता है और विशेष कुछ नहीं है, जिस संतान के राग में कमा रहा है, उस संतान का स्वयं का भाग्य होगा कि नहीं, फिर राग के वश होकर पिता तो व्यर्थ में अशान्ति का अनुभव कर रहा है, जीव को उतना ही मिलता है, जितना पुण्योदय होता है, बिना पुण्य के अन्य के द्वारा कोटि-कोटि द्रव्य भी सौंप दिया जाय, परन्तु मालूम नहीं चलता - कब और कहाँ चला गया?.. राग करके मात्र बन्ध ही प्राप्त हुआ, ज्ञानियो ! फिर क्यों बन्ध की भेंट को स्वीकारते हो, उपहार ही लेना है, तो रत्नत्रय धर्म का लो । तृष्णा के गर्त अति- विशाल हैं, जिसमें सारे विश्व के पदार्थ परमाणु-जैसे दिखते हैं, अब स्वयं ही विचार करें, क्या किसी की तृष्णा को आप पूरा कर सकते हैं? ... तृष्णा का संताप गंगा के शुद्ध नीर से शान्त होने वाला नहीं है, न ही मलय- चंदन से । अहो ! जो संताप अग्नि को ज्वाला नहीं देता, वह संताप तृष्णा (नैरन्तर्य) की ज्वाला देता है, दिन में चैन नहीं, रात को नींद नहीं, भोजन में भूख नहीं, पानी की प्यास नहीं, यह है तृष्णा की महिमा, एकान्त में जाकर तल्लीन हुआ मिलता है, अप्राप्त में प्राप्ति की तृष्णा से युक्त - जैसे कोई महा-तपस्वी योगीन्द्र आत्म- ध्यान में निमग्न हो गये हों । योगीन्द्र को सारा जगत् असार दिखायी देता है, पर तृष्णावान् को इस दुःख-मय लोक में सुख ही सुख दिखलायी पड़ता है, तभी परमात्मा एवं निज शुद्ध स्वभावी भगवान् आत्मा को छोड़कर जड़ पुद्गल पिण्डों में निज-ध्रुव स्वभाव - चैतन्य-प्रकाश को आशा में बुझा रहा है।
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अहो! तृष्णातुरों से बोल देना, आज ही ध्यान से सुनना- क्या बोलना है कि क्या मोक्ष की तृष्णा से किसी को मोक्ष प्राप्त हुआ है ?... मोक्ष तो निर्दोष मायाचारी-रहित