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श्लो. : 20
ज्ञान-स्कन्ध समयसार हैं। शुद्ध लवण की डली के तुल्य वे शुद्धात्मा के रस का पान करते हैं, जहाँ अन्य पदार्थों का मिश्रण नहीं है । एक मात्र ज्ञायक-भाव ही ध्रुव ध्यान है, अन्य ध्यान-ध्याता के विकल्प का जहाँ अभाव है, परिपूर्ण एकत्व-भाव का मात्र सद्भाव है। सत् का अभाव नहीं है, अज्ञ प्राणी सत् को नहीं समझ पा रहे, जो-कि भूतार्थ- वस्तु के धर्म हैं, वे अन्य में अन्य का धर्म खोजते हैं, स्व-पर में एवं अपने और अन्य की वस्तु में भेद नहीं कर पाते। आप और पर का भेद होना अनिवार्य है, जहाँ पर्याय में निज-पर्याय- बुद्धि है, वहीं ज्ञानी पर समय है, पर समय में लीनता बहिरात्म-पना है । बहिरात्मा जब-तक मन्द कषाय के साथ मृदुता को प्राप्त नहीं होता, तब तक सम्यक्त्व - दशा भी नहीं बनती, बिना सम्यक्त्व के उपेक्षा भाव का जन्म नहीं होता । उपेक्षा उत्कृष्ट-साधना है, जहाँ न तो किसी से राग का पक्ष रहता है, न द्वेष का ही पक्ष रहता है, सम्पूर्ण पक्षपातों से रहित अवस्था मुमुक्षु जीव की होती है, वही परम-उपेक्षा है, अपेक्षा में राग - मोह रहता है, अपेक्षा पराधीनता से युक्त दशा है, उपेक्षा स्वतंत्र तथा मोह - राग-रहित अवस्था है, उसे ही माध्यस्थ-भाव कहते हैं, सम्पूर्ण अशुभ विकल्पों का ही नहीं, बुद्धि-पूर्वक शुभ भावों के विकल्पों से परे की अवस्था है । पन्थ, सन्त, आम्नाय संघ, वादों में पड़े जीवों की यह उपेक्षा अपेक्षा ही करती है, यानी उत्कृष्ट साधना-भूत अपेक्षा, उदासीनता प्रमाद - जन्य उपेक्षा की अपेक्षा करती है। माध्यस्थता-रूप जो उपेक्षा है, वही मोक्ष - मार्ग में प्रयोजन- भूत है, कुशल - कर्तव्य में उदास होना मोक्ष मार्ग नहीं है, मोक्ष मार्ग तो संवेगी- भाव है, धर्म-धर्मात्माओं को देखते ही हर्षित-भाव होने लगे जिसके, वही जीव संवेगी है। शिवत्व की प्राप्ति उत्कृष्ट उपेक्षा-भाव से ही होगी । अहो मुमुक्षुओ ! भाषण समाप्त कर भावों को पर-भावों से भिन्न करो और निज ध्रुव ज्ञायक भाव में लीन हो जाओ । । २० ।।
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विशुद्ध-वचन
* नहीं बन पाओगे ब्रह्मचारी पाबन्दी लगाने से
संतान की उत्पत्ति पर.....
यदि लगाना है तो लगाओ
वासना पर....
तभी बनोगे
सही मायने में ब्रह्मचारी..... ।
स्वरूप-संबोधन-परिशीलन
* जो
पर की करता
• उपेक्षा
और रमता
निज में
वही
लीन होता अकिंचन में ....... ।
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