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श्लो . : 20
स्वरूप-संबोधन-परिशीलन
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प्राप्त होती है और जो सरलता से मिल जाती है, उसकी कीमत लोग कम आँकते हैं और अधिकता से मिलने लगे, तो द्वेष-भाव भी उत्पन्न होने लगता है। ज्ञानियो! निज की कीमत चाहते हो, तो जन-संपर्क अल्प कीजिए, अन्यथा साधना नष्ट होती है एवं समय भी नष्ट होता है, आयु-कर्म भी व्यर्थ में क्षीण होता ही है, शेष सम्पूर्ण शुभ-प्रवृत्तियों का अभाव होता है और महान् पुण्य से प्राप्त समय के (आगम) अध्ययन का काल भी व्यर्थ जाता है, इन सभी के साथ सम्मान भी चला जाता है, विद्वज्जनों से उपेक्षा मिलती है, यह है फल अधिक परिचय का। मनीषियो! विश्वास रखनालोक में कहा जाता है कि कुत्ते के पिल्ले को भी अधिक स्थान दें, तो वह भी गाल चाटने लगता है। उसीप्रकार पर में अधिक राग रखोगे, तो ध्यान रखना- आत्मा-रूपी पुरुष के अन्तःकरण के गाल को कर्म चाटने लगते हैं, यानी कर्म-बन्ध को प्राप्त होने लगते हैं। ज्ञानी! बन्ध-मोक्ष, मान-अपमान आदि ये अवस्थाएँ, विश्वास रखो, पराधीन नहीं, बल्कि आत्माधीन हैं, प्रत्येक कार्य स्वाधीन होता है, जीव व्यर्थ में पराधीनता को स्वीकारता है, सर्वप्रथम तो हमें यह समझना चाहिए कि कण-कण स्वतंत्र है, अन्य अन्य के अधीन नहीं है, प्रत्येक द्रव्य स्वभाव के अनुसार ही परिणमन करता है, फिर-भी मोह से युक्त प्राणी राग-द्वेष-भाव करके स्वयं ही बन्ध को प्राप्त होता है। निज स्वतंत्रता का अनुभव हो जाय, तो पर से संबंध बनाने का राग ही समाप्त हो जाए। पर से राग-द्वेष समाप्त हो जाए, कर्मास्रव की धारा बन्द हो जाए। हे जीव! पूर्व धारणा को अब छोड़ दे, तू बार-बार कहता है कि क्या करूँ?......कर्म-संसार में भ्रमण करा रहे हैं, कर्म दुःख दे रहे हैं, जो भी अशुभ घटित हुआ कि सीधा पहुँचा कर्म पर, वह भी द्रव्य कर्मों पर लक्ष्य होता है, जैसे- ईश्वरवादी सम्पूर्ण शुभाशुभ, सुख-दुःख ईश्वर के माथे पर रखता रहता है, उसीप्रकार आप मुझे दिखते हो, जो-भी अच्छा-बुरा हुआ कि कर्म पर रखा, अच्छा-बुरा कुछ होता नहीं; बस, राग की पूर्ति होती है, तो अच्छा लगता है और राग की पूर्ति जिससे न हो, वही बुरा लगता है, जिसका राग-द्वेष ही गया, उसके लिए न कोई अच्छा, न कोई बुरा, वहाँ तो उदासीनता का भाव है अपनी निज-स्वतंत्रता का अभाव कर रहा है। जबकि कोई भी द्रव्य-कर्म किसी भी जीव को स्वयमेव कभी भी सुख-दुःख नहीं देते, वे द्रव्य-कर्म तो जड़ हैं, वे चैतन्य को बिना कारण कैसे कष्ट देंगे? ....लोक में भी तो देखो- निरपराधी को जेलर क्या जेल में डाल सकता है, बाल-अवस्था में जब पुलिस-थाने की दीवार पर बैठे रहते थे, तब क्या किसी ने पकड़ा, नहीं पकड़ा न, उसी प्रकार कर्म-रूपी पुद्गल-वर्गणाओं के मध्य रहते हुए भी वे किसी को स्वयमेव आकर नहीं बाँधती, बन्ध तभी होते हैं- जब