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श्लो. : 19
स्वरूप-संबोधन-परिशीलन
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कहना चाहता हूँ, तत्त्व-उपदेश के अनुसार पर को हेय-उपादेय की मीमांसा का त्याग करते हुए एक क्षण निज-चिन्तवन पर चित्त लगाओ- क्या यह आपका मोक्ष-मार्ग है, क्या यह विकल्प पर-भाव नहीं है?...क्या आत्म-स्वभाव से भिन्न-भाव नहीं है?... क्या आपकी आत्मा यह नहीं कहती, क्या विश्व-सुधार आप कर पाएँगे?... जो स्वयं के अंदर पर का चिन्तवन कर रहा है, वह स्वयं का कल्याण नहीं कर पा रहा है। विश्वास रखना- कलम चलाकर कागज ही भर पाएँगे, पर आपके द्वारा अन्य का सुधार नहीं हो सकता, सुधार के निमित्त भी वे ही बन पाते हैं, जो स्वयं सुधरे होते हैं। विद्वानो, ज्ञानियो, मुमुक्षुओ! क्या आप जैन नहीं हो, जैन-दर्शन-पोषित परिवार में जन्म लेने वाला कर्म-सिद्धान्त के विपाक पर प्रति-क्षण ध्यान रखता है। ध्यान दोसाक्षात् सत्यार्थ-धर्म का व्याख्यान जहाँ से प्राप्त हुआ, वे तीर्थेश परमात्मा जगत् का कल्याण नहीं कर पाये, मात्र कल्याण-मार्ग ही बतला पाये हैं, यदि उनके उपदेशों से ही मात्र कल्याण होता, तो-फिर आप स्वयं पंचम काल में कैसे आ गये?... प्रश्न का कोई उत्तर कर्म-सिद्धान्त से पृथक् हो, तो बतलाएँ?... अन्त में आपको कहना ही पड़ेगा कि स्वावरण कर्म का क्षयोपशम ही जीव के हिताहित का साक्षात् कारण है, अन्य तो मात्र कारण के कारण हैं। अहो प्रज्ञ! तत्त्व-देशना स्वात्म-मुखी होकर ही करो। प्रज्ञा का उपयोग हेय-भूत कषायों में व्यय मत करो, जब पर के बारे में लिखा जाता है, तब सूक्ष्म एवं भूत नय से तो तद् अवगुण-रूप ही है, स्व-वंचना मत करो।
जिस रूप से ज्ञान का परिणमन चल रहा है, उस समय जीव तन्मय होता है, उपयोग जैसा होगा, भाव वैसे ही होगा, इसलिए तत्त्वज्ञानी! सर्वप्रथम स्व-हित की कामना होना अनिवार्य है, हित तभी संभव दिखता है, जब नाना प्रकार के विकल्पों की ज्वाला को तत्त्व-चिन्तवन के शीतल नीर से शान्त कर दिया जाएगा। अन्य को अनन्य बनाना कठिन है। अहो मनीषी! जीव के स्वयं के परिणाम तो एक-जैसे नहीं रहते, अल्प समय के लिए निज-भावों से बात कर लो, जो-कि भव-भव में रुला रहे हैं, पवित्र वीतराग धर्म में जन्मा प्राणी वीतरागता से दूर क्यों हो रहा है?... पर पर्यायों में लिप्त हो रहा है, निज ब्रह्म-धर्म का घात कर रहा है, अन्य के बारे में लिखना बहुत सरल है, निज में निज को लखना अति-कठिन कार्य है, जिनवाणी पढ़ते-पढ़ते परवाणी में चित्त दौड़ रहा है, क्या यही उपादेयता है?...
जिनवाणी का कार्य सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र के प्रति आस्था एवं उनका आचरण करना एवं संयम के लिए ही श्रुत धारण किया जाता है। अहो आश्चर्य! कारण-कार्य