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स्वरूप-संबोधन-परिशीलन
अध्यात्म-रसिक श्रोता संतुष्ट और आनन्दित हुए बिना नहीं रहते; यही कारण है कि आचार्य श्री जहाँ भी होते है, वहाँ हजारों लोग उनकी दिव्य-देशना सुनने प्रवचन- सभा में स्वतः ही चले आते हैं और हजारों लोग उनके द्वारा सृजित साहित्य को पढने के लिए भी लालायित रहते हैं। मुझे उम्मीद है कि सुधी-जन इस कृति का भी भरपूर समादर करेंगे और इसका स्वाध्याय करते हुए आनंदानुभूति करेंगे।
इन्दौर,
दिनांक : 20.05.09
ग्रन्थ के निर्दोष प्रकाशन में मनीषी विद्वान् प्रोफेसर डॉ. वृषभ प्रसाद जी जैन लखनऊ का महत्वपूर्ण योगदान रहा है, इसके लिए मैं उनका हृदय से आभारी हूँ । परमपूज्य आचार्य श्री ने जन-सामान्य और स्वाध्याय - रसिकों के लिए "स्वरूप-संबोधन" की टीका लिखकर जो उपकार किया है, उसके लिए हम उनके सदैव ऋणी रहेंगे। आचार्य श्री के चरणों में विनत भाव से शतशः नमन के साथ ।
आशीर्वाद - अभिलाषी आजाद कुमार जैन
यथा स्वयं वाञ्छति तत्परेभ्यः कुर्याज्जनः ।
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आचार्य ज्ञानसागर, वीरोदय महाकाव्य, 16 / 6
मनुष्य जैसा व्यवहार स्वयं अपने लिए चाहते हैं, वैसा ही व्यवहार उन्हें दूसरे दीन-हीन व कायर पुरुषों के साथ भी करना चाहिए ।