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श्लो. : 19
में
द्वैत से अद्वैत की ओर रत रहते हैं । दुग्ध में घृत द्वैत-भाव से रहता है, परन्तु घृत का स्वाद नहीं आता, शुद्ध घृत का स्वाद तभी आता है, जब दुग्धादि पर्यायों को निज से पृथक् कर लेता है, तब अर्घ्यवान - घृत अपनी स्वतंत्र सत्ता में पहुँचकर स्वतंत्र-संज्ञा को भी प्राप्त होता है, जब तक दुग्ध में घृत रहता है, तब-तक कोई विज्ञ दुग्ध में रहने वाले घृत को घृत कहकर नहीं पुकारता, दुग्ध ही कहता है ? .... अहो! क्या विडम्बना है, गो-रस में सर्व - शक्तिमान् घृत दुग्ध के संयोग में होने से कभी भी स्वतंत्र संज्ञा को प्राप्त नहीं होता, अधिक हुआ तो, इतना अवश्य कहा जाता है कि दुग्ध घृत अच्छा है, परन्तु घृत अच्छा तभी कहलाता है, जब सभी विशेषों का अभाव हो जाता है, तब शेष होता है शुद्ध घृत। अद्वैत का आनन्द ही कुछ और है, उसे द्वैत में लीन क्या समझ पाएगा?... .. एकान्त स्थान हो, अद्वैत-भाव हो, वहाँ भवातीत की अनुभूतियाँ प्रारंभ हो जाती हैं । भवातीत की अनुभूति उसी परम - योगी को होती है, जो विषय कषाय, आर्त्त - रौद्र, राग-द्वेष, मान- कषाय, लोभ, काम, क्रोध, जाति, लिंग, पन्थ, सम्प्रदाय, गण- गच्छ, संग, संघ, दक्षिण - उत्तर, पूर्व - पश्चिम, संघ - उपसंघ, गणी-गणाचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक, गणधर नगर, महानगर, जनपद, ग्राम, श्मसान, भवन, जंगल, स्त्री-पुरुष, बाल - युवा - वृद्ध, श्वेतवर्ण - श्यामवर्ण, छोटा शरीर, बड़ा-शरीर, वंश - परवंश इत्यादि अशुभ संसार - वृद्धि की कारण-भूत भावनाओं से अतीत हुए बिना भवातीत की अनुभूति स्वप्न में भी होने वाली नहीं है, निर्भर चाहे वह ग्रहीलिंग हो, चाहे जिनलिंग हो । लिंग तो देहाश्रित है, भवातीत होने के लिए आत्माश्रित भावनाओं को विशुद्ध करना होगा, भावनाओं की निर्मलता पर सम्पूर्ण मोक्ष - मार्ग स्थित है | शरीराश्रित धर्म करते-करते अनन्त भव धारण कर लिये, फिर भी भवातीत नहीं हुआ; पर सत्य तो यह है कि धर्म का फल कभी भी विफल नहीं होता, शरीर से धर्म दिखा-दिखा कर बहुत अच्छे से किया था, उसका परिणाम वर्तमान में सुंदर शरीर मिल गया, यह भी भावना - शून्य धर्म का परिणाम है, अधर्म से सुंदर शरीर मिलने वाला नहीं है ।
स्वरूप-संबोधन-परिशीलन
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अहो ज्ञानियो! जब तन से किया धर्म भी पुण्य के रूप में फलित होता है, तो फिर स्वयं स्व-विवेक से शान्त - चित्त होकर चिन्तवन करो कि भावना - पूर्वक अन्तःकरण से किया गया सम्यग्धर्म क्या इस भगवान् आत्मा को भगवान् नहीं बना देगा! अवश्य ही बनाएगा, इस विषय पर किञ्चित् भी शंका नहीं करना । ज्ञानियो! जैसे तन से पुरुषार्थ के साथ धर्म किया करते हो, वैसे ही मन से भी धर्म करना प्रारंभ करो, तेरा