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श्लो . : 17
स्वरूप-संबोधन-परिशीलन
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पर अन्य के दुःख-सुख में आप कुछ कर नहीं पाएँगे। यदि पुत्र को असाध्य रोग है, तो पिता देखता है, उसका उपचार भी करा सकता है, परन्तु पीड़ा को किञ्चित् भी नहीं भोगेगा, वह तो पुत्र को ही भोगना पड़ती है तथा शुभ करता है पुत्र, तो वह स्वर्गादि सुख को भी अकेले ही भोगता है, उस सुख को भी पिता नहीं भोग सकेगा, उसे भी पुत्र स्वयं भोगेगा, पिता न सुख में भाग लेगा, न दुःख में। ज्ञानियो! यहाँ पर ध्रुव सिद्धान्त पर ध्यान दो- प्रत्येक जीव का कर्ता-भोक्ता-पन स्वाधीन है, न कोई किसी के सुख-दुःख का कर्ता है, न भोक्ता है, मात्र हर्ष-विषाद ही एक-दूसरे के प्रति व्यक्त कर सकेंगे, इससे अधिक और कुछ नहीं, –ऐसा निशंक-भाव से समझना।
एक्को करेदि कम्मं एक्को हिंडदि य दीहसंसारे। एक्को जायदि मरदि य, तस्स फलं भुंजदे एक्को।। एक्को करेदि पावं, विसयणिमित्तेण तिव्वलोहेण। णिरयतिरियेसु जीवो, तस्स फलं भुजदे एक्को।। एक्को करेदि पुण्णं धम्मणिमित्तेण पत्तदाणेण। मणुवदेवेसु जीवो, तस्स फलं भुंजदे एक्को।।.
___-बारसाणुपेक्खा , 14, 15, 16 अर्थात् यह जीव कर्म को अकेला ही करता है, अकेला ही दीर्घ संसार में भ्रमण करता है तथा अकेला ही जन्म-मरण करता है और कर्मों के फल को स्वयं अकेला ही भोगता है। विषयों के निमित्त अज्ञ-प्राणी तीव्र लोभ से युक्त होकर अकेला ही पाप-कर्म करता है और विपाक के काल में नरक तिर्यंच पर्याय के दुःखों को अकेला ही प्राप्त होता है। मनुष्य, देवगति में भावों की निर्मलता से धर्म के निमित्त अकेला ही जीव पुण्य करता है, पात्र-दानादि के द्वारा उसके फल को भी स्वयं भोगता है। ___ अहो हंसात्मन्! शुभाशुभ गति का गमन अन्य के द्वारा नहीं होता, इसके लिए भी जीव स्वतंत्र है, जीव जहाँ भी जाना चाहे, निज-भावों की परिणति को वैसा करे, वहीं गमन होगा। यह व्यवस्था न इन्द्र के हाथ में है, न जिनेन्द्र के हाथ में; यदि है किसी के साथ में, तो जीव के स्वयं के हाथ में ही है। चारित्र-अचारित्र, ज्ञान-अज्ञान, सम्यक्त्व-मिथ्यात्व में सभी अवस्थाएँ जीव के अनुसार होती हैं, जिस ओर चित्त-वृत्ति होती है, तदनुसार चारित्र की प्रवृत्ति होती है। निज-चित्त को चैतन्य की सभी अनुभूतियों का ज्ञान रहता है, तो क्या भ्रमित आत्म-परिणामों का ज्ञान जीव को नहीं