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श्लो. : 16
स्वरूप-संबोधन-परिशीलन
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पहचाने, उसी की बात करे, अन्य स्त्री-पुरुष नपुंसक भावों के राग का जहाँ अभाव है, वेद-विकार जिसके शांत हो चुके हैं, परम-ब्रह्मचर्य-धर्म में जो प्रवेश कर चुका है, अशन-वसन की वासनाएँ जिसके अन्तःकरण से प्रलय को प्राप्त हो चुकी हैं, अन्य अन्य है, मैं मैं ही हूँ, कषाय-राग का भी ज्ञान नष्ट हो गया, एक-मात्र चिद्दशा ही अवशेष है, वह सहज-भाव आनन्द-भूत है। एक-मात्र चैतन्य-पुरुष की अनुभूतियाँ जहाँ चल रही हैं, वह परम-ब्रह्म-भाव है। धर्म-धर्मी का भेद जब-तक रहेगा, तब-तक सहज-भाव भाषा में ही होगा, जब धर्म-धर्मी, पक्ष-सपक्ष, विपक्ष का भी निज-भाव में अभाव होगा, वह निर्विकल्प-योगी की ध्यान-अवस्था सहज-भाव है, स्वानन्दीभूत परम-अमृत-पान का प्यासा जड़ नीर के विकल्पों से भी परे होता है। वहाँ फिर समझना कि सहजता में जा रहा है, शिष्य-गुरुता का भाव भी जगत् में एक पर्वत के भार-जैसा है, परम-योगीश्वर कल्याण एवं उपकार की भावना से ही दीक्षा-शिक्षा देते हैं। उसमें भी कर्ता-भाव की गन्ध नहीं आने देते, यही उत्कृष्ट-साधक की सावधानी है।
जब साधक सावधान हो जाता है, तब विकार समाप्त हो जाते हैं, विकारों के समाप्त होते ही विकार्य नष्ट हो जाते हैं, विकार्य (अशुभकार्य) को समाप्त करना है, तो विकारों को समाप्त करना होगा। ज्ञानियो! विकार्य की अपेक्षा लोक सर्वाधिक विकारों से युक्त है, क्षण-क्षण में विकार-भाव आ रहे हैं, जीव अन्दर के स्वभाव-धर्म को भूल रहे हैं, जो कि आत्मा की अमूल्य निधि है, जिसके सद्भाव में संयम पलता है, संयम से निर्वाण होता है। साम्य-भाव के अभाव में मनीषियो! चारित्र की गन्ध भी नहीं होती, चारित्र-शून्य-पुरुष पुरुषार्थ-सिद्धि को प्राप्त नहीं होता, पुरुषार्थ की सिद्धि साम्य-भाव से ही होगी।
आचार्य-देव ने इस श्लोक में "इति" शब्द के द्वारा सम्पूर्ण तत्त्व का निर्देश किया है, पूर्व में जो दार्शनिक सिद्धान्त एवं आध्यात्मिक कथन किया, वह सम्पूर्ण कथन "इति" शब्द से ग्रहण हो जाता है, यानी इसप्रकार जो पूर्व में व्याख्यान किया है, उसे जानकर अच्छी तरह से चिन्तवन करें, विचार करें, विचारों की अनुभूति व्यक्ति को महान् बना देती है, विचार-शील पुरुष विवेक-पूर्वक कार्य करता है, पर विचार सद्-विचार हों, तो ही........... | सद्-विचार-शील सदा सम्मान को प्राप्त होता है।
जो सभी प्रकार से श्रुत का विचार करता है, वह जीव श्रुत-सागर से भेदाभेद रत्नत्रय के रत्नों को प्राप्त होता है, तत्त्व-बोध श्रुताराधना का फल कहते हुए