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स्वरूप-संबोधन-परिशीलन
श्लोक - 16
उत्थानिका— शिष्य अपनी जिज्ञासा पुनः प्रकट करता है- भगवन्! इसप्रकार कर्म के विनाश के कारण भूत बाह्य - आभ्यन्तर उपायों को अपनाने के बाद निज आत्म-भावना को कैसे भावित करें ?.
समाधान- आचार्य देव समाधान करते हैं
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श्लो. : 16
इतीदं सर्वमालोच्य, सौस्थ्ये दौःस्थ्ये' च शक्तितः । आत्मानं भावयेन्नित्यं रागद्वेषविवर्जितम् ।।
अन्वयार्थ - (इति इदं) इसप्रकार यह (सर्वं ) सब, (आलोच्य) आलोचना पूर्वक गुण-दोष का विचार करके, ( सौस्थ्ये) अनुकूल परिस्थिति में, (च) और, (दौःस्थ्ये) प्रतिकूल परिस्थिति में, ( शक्तितः ) यथा - शक्ति, (नित्यं) सदा, ( राग-द्वेष- विवर्जितम्) राग-द्वेष रहित शुद्ध, ( आत्मानं ) आत्मा की, (भावयेत् ) भावना करें। 116 ||
परिशीलन - चित्त की अशुद्धि व विशुद्धि जीव के चिन्तवन पर अवलम्बित है, जैसा - चिन्तवन होता है, वैसा ही चित्त होता है । जीवन की उन्नति - अवनति का प्रबल कारण चिन्तन की धारा है। जैसा चिन्तवन बनता है, वैसा ही जीवन होता है। लोक- क - पूज्यता व्यक्ति के चिन्तवन पर आधारित है, जैसे- दधि को मथने पर मक्खन निकलता है, जितना मथते जाओ, वैसे-वैसे मक्खन प्रकट होता है, वैसे ही तत्त्व - ज्ञानी जैसे-जैसे तत्त्व का चिन्तवन करता है, वैसे-वैसे ही सत्यार्थ-तत्त्व का अधिगम (बोध) होता-जाता है, तत्त्व-बोध, तत्त्व निर्णय का सुंदर मार्ग तत्त्व - चिन्तवन है, बिना चिन्तवन के भूतार्थ-बोध नहीं हो पाता, तत्त्व - चिन्तवन से हृदय भी अविकार-भाव को प्राप्त होता है।
1. 'दौःस्थ्ये' के स्थान पर कुछ विद्वान् विसर्ग-रहित 'दौस्थ्ये' पाठ मानते हैं, जो व्याकरणिक दृष्टि से उचित नहीं है।
2. 'आत्मानं' के स्थान पर कुछ विद्वान् 'आत्मनः' पाठ मानते हैं, वह भी आत्मा को सम्बोधने के अर्थ में सीधे संगत नहीं बैठता और आचार्य अकलंकदेव की प्रकृति भी सीधे संगत-पाठ को रखने की ही है।
3. 'नित्य' के स्थान पर कुछ विद्वान् 'तत्त्वं' पाठ मानते हैं, वह भी सीधे-संगत नहीं बैठता, बहु-प्रति-सापेक्ष्य भी नहीं है, अतः उचित नहीं ।