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श्लो. : 15
समाधान कर लेना चाहिए कि सम्यक्त्व तो आत्म- गुण है, उसके लिए पर-हेतुओं की क्या आवश्यकता है?
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स्वरूप- संबोधन - परिशीलन
ज्ञानियो! सिद्धान्त - शास्त्र बोल रहा है कि क्षायिक सम्यक्त्व के लिए केवली, श्रुत- केवली का पाद-मूल चाहिए, दोनों पर- प्रत्यय हैं, फिर अब क्या कहोगे ? निमित्त कुछ नहीं करता, सिद्धान्त कहाँ गया ? .... अरे भाई ! निमित्त पर- द्रव्य - रूप नहीं होता, बाह्य-निमित्त उपादान-रूप परिणत नहीं होता, परन्तु उपादान के परिणमन में सहकारी अवश्य होता है; समझो - केवली, श्रुतकेवली के मूल में परिणामों की विशुद्धि में वृद्धि होती है, बिना विशुद्ध भावों की वृद्धि के क्षायिक सम्यक्त्व नहीं होता; उपादान -दृष्टि से तो आत्मा की परिणति ही सम्यक्त्व है, परन्तु उस परिणति को प्रकट करने में पर- प्रत्यय अनिवार्य है।
भोग- भूमि में क्षायिक सम्यक्त्व नहीं होता, - ऐसा नियम है, क्यों नहीं होता ? ..... तो ज्ञानी! क्यों का भी समाधान है, केसर की खेती मरुस्थल, मध्य भारत, दक्षिण भारत में क्यों नहीं होती है ? .....ज्ञानी ! विवेक तो लगाओ, तदनुकूल जलवायु नहीं है, उसीप्रकार भोगभूमि में क्षायिक सम्यक्त्व के योग्य क्षेत्र स्थित नहीं है । भोग-भूमि में संयम-पालन की भी योग्यता नहीं होती, जब भरत - क्षेत्र में भोग- भूमि का काल होता है, तब यहाँ पर भी जीव चारित्र धारण नहीं कर पाता, कर्म-भूमि का अर्थ ही यह है कि जिसके सद्भाव में जीव शुभाशुभ कर्म करके शुभाशुभ-गति में गमन करता है । जब पूर्ण- वीतराग चारित्र से युक्त हो परम - शुद्धोपयोग में लीन होता है, कर्त्तापन से पूर्ण शून्य हो जाता है, तब यह जीव इसी कर्मभूमि से निःश्रेयस् सुख को प्राप्त होता है । विदेह-क्षेत्र में सर्व-काल जीव विदेही अवस्था को प्राप्त होता है । साधना विदेह की प्राप्ति का रत्नत्रय धर्म है, उसे ही ग्रन्थ- कर्त्ता मूल हेतु शब्द से उपदेशित कर रहे हैं। मूल हेतु तो निश्चय - व्यवहार रत्नत्रय धर्म ही है, परन्तु उस निश्चय - व्यवहार रत्नत्रय धर्म के लिए गति, स्थिति आदि भी आवश्यक हैं। बिना बहिरंग सहकारी कारण के अनन्त - शक्ति - सम्पन्न आत्मा भी अधः एवं ऊर्ध्व-गमन नहीं कर सकती, यदि सप्तम नरक में भी अधोगमन करे, तो भी बज्र - वृषभ-नाराच उत्तम संहनन चाहिए तथा ऊर्ध्व-गमन सर्वार्थसिद्धि-विमान अथवा अशरीरी सिद्ध भगवान् बनकर सिद्धालय में गमन करे, तो भी उत्तम संहनन चाहिए । उत्तम देश, उत्तम वंश, सुकुल, श्रावक - ग्रह में जन्म लिये बिना जैनेश्वरी दीक्षा नहीं होती, साथ में शुभ अंग भी होना अनिवार्य है, जिसका शरीर असाध्य रोग से ग्रसित है,
साधकतम