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स्वरूप-संबोधन-परिशीलन
श्लो. : 15
साध्य के साथ जिसका होना निश्चित हो, वह हेतु है। जब साध्य होगा, तो वहाँ पर साधन का होना अनिवार्य है, उसके बिना साध्य की सिद्धि नहीं हो सकती, यथार्थ में वही हेतु हेतु है। जिससे कार्य की उपलब्धि ही न हो, वह हेतु नहीं है। आचार्य माणिक्यनन्दि ने भी कहा हैसाध्याविनाभावित्वेन निश्चितो हेतुः ।।
-परीक्षामुख, सूत्र 3/11 अर्थात् साध्य के साथ जिसका अविनाभाव निश्चित है, उसे हेतु कहते हैं। अग्नि के साथ धूम का अविनाभाव तर्क-प्रमाण के द्वारा निश्चित हो जाता है, अतः धूम को हेतु कहते हैं, धूम के द्वारा पर्वत में अग्नि को सिद्ध किया जाता है, इसलिए अग्नि साध्य है। यह तो पहले ही बतलाया जा चुका है कि साध्य और साधन में अविनाभाव संबंध होता है। सह-भाव-नियम और क्रम-भाव-नियम को अविना-भाव कहते हैं, कुछ साधन और साध्यों में सह-भाव-नियम होता है और कुछ में क्रम-भाव-नियम होता है। सह-भाव का अर्थ है साथ-साथ रहना; सह-भाव-नियम उस साधन और साध्य में होता है, जो सदा साथ-साथ रहते हैं; जैसे- रूप और रस सहकारी हैं। जब हम आम के पीले-पीले रूप को देखकर मीठे रस का अनुमान करते हैं, तो यहाँ रूप और रस में सह-भाव-नियम पाया जाता है, उसीप्रकार सह-भाव-नियम उस साधन और साध्य में भी होता है, जो व्याप्य और व्यापक है, जैसे- शिंशपा (शीशम) और वृक्ष। शिंशपा व्याप्य है और वृक्ष व्यापक है, जब हम शीशम को देखकर उसके वृक्ष का अनुमान करते हैं, तो यहाँ शीशम और वृक्ष में सह-भाव-नियम से रहता है, इसप्रकार सहचारी साधन-साध्य में तथा व्याप्य और व्यापक में सह-भाव-नियम-रूप अविनाभाव होता है।
क्रम-भाव का अर्थ क्रम से होना, क्रम-भाव-नियम उस साधन और साध्य में होता है, जो पूर्व-चर और उत्तर-चर है, जैसे- कृत्तिकोदय और शकटोदय। जब हम कृत्तिका नक्षत्र के उदय को देखकर शकट नक्षत्र के उदय का अनुमान करते हैं, तो यह कृत्तिकोदय और शकटोदय में क्रम-भाव-नियम पाया जाता है। इसी प्रकार कार्य और कारण में भी क्रम-भाव-नियम होता है, जैसे- अग्नि और धूम में क्रम-भाव-नियम है, धूम कार्य और अग्नि कारण है। जब हम धूम को देखकर अग्नि का अनुमान करते हैं, तो यहाँ धूम और अग्नि में क्रम-भाव-नियम रहता है। अग्नि से धूम उत्पन्न होता है, पहले अग्नि होती है, फिर उससे धूम उत्पन्न होता है, यही इनमें क्रम-भाव है। इस प्रकार पूर्व-चर एवं उत्तर-चर साधन और साध्य में तथा कार्य और कारण-रूप साधन