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स्वरूप-संबोधन-परिशीलन
श्लो. : 13 एवं 14
व्याख्या को पढ़कर किसी चारित्रवान् के प्रति अशुभ-भाव नहीं लाना, अपितु स्वयं को जाग्रत रखना, बिना भेष के चारित्रवान् की पहचान भी नहीं होती, चारित्र हो और भेष न हो, यह भी संभव नहीं है, परन्तु भेष का नाम चारित्र नहीं है, भेष तो मात्र देहाश्रित है, न कि आत्माश्रित, परन्तु चारित्र आत्माश्रित है, जो आत्माश्रित है, वही परमार्थचारित्र है, ज्ञानी! परमार्थ-चारित्र ही आत्माश्रित हो, -ऐसा नहीं है, आत्माश्रित ही व्यवहार-चारित्र है, भेष-मात्र देहाश्रित है। वस्त्रादि को छोड़ना, गृह छोड़ना पिच्छी-कमण्डलु-शास्त्र को ग्रहण करना यह-सब देहाश्रित अवस्था चल रही है, इन अवस्थाओं में न तो निश्चय दिखता है, न व्यवहार। __ अहो! क्या आश्चर्य है कलि-काल का, आत्म-प्रशंसा में एवं आत्म-प्रशंसा हेतु गुरु प्रशंसा में सारा समय निकल रहा है, गुणों की प्रशंसा फिर भी स्तुत्य है, तन एवं भवनों के निमित्त चल रही प्रशंसा आत्म-हित में किञ्चित् भी सहकारी नहीं है। कारण क्या है? ....उस प्रशंसा में धन एवं धन वालों की प्रशंसा निहित है, धनिकों की कार्य-प्रणाली कैसी है? ....यहाँ कोई नहीं देखता, मृषा-प्रशंसा करने वाले कहीं न कहीं श्री और स्त्री से जुड़े हैं, चारित्रवानों की स्तुतियाँ स्वयं होती हैं। ध्यान रखनाअधिक प्रशंसा भी निन्दा का कारण हो जाती है, इसलिए स्तुत्य की स्तुति स्तुत्य के अनुरूप ही करें, अन्यथा करने से उपहास ही होता है। ___ असत्य की प्रशंसा से जीव सत्य-मार्ग से च्युत होता है। मनीषियो! सत्यार्थ-मार्ग ही चारित्र है, उस चारित्र की यथार्थता पर विचार अनिवार्य है। यहाँ पर सभी के अन्दर एक प्रश्न खड़ा हो गया होगा कि आप दिगम्बर मुद्रा को व्यवहार द्रव्य-चारित्र भी स्वीकार नहीं कर रहे, फिर द्रव्य-संयम का क्या होगा ? ....आज तक द्रव्य-भेष को ही तो द्रव्य-संयम मानते रहे हैं। ज्ञानियो! तत्त्व को समझे बिना रूढ़ि में लीन रहे आज तक आप, फिर इसमें आगम व हमारा क्या दोष? आपने समझने का प्रयास आगम के पृष्ठों में किया होता, तो द्रव्य-चारित्र की परिभाषा समझ में आ जाती। ज्ञानी! जो द्रव्य-मुद्रा है, वह देहाश्रित दशा है, द्रव्य-संयम मूलगुण-उत्तरगुण-पालन-भूत निर्दोष-परिणति है, सत्यार्थ-श्रमण की चर्या का पालन करना व पाँच महाव्रतादि में द्रव्य से किञ्चित् भी दोष नहीं लगने देना, द्रव्य-चारित्र है। जो मात्र नग्न शरीर लिये हैं, पाँच महाव्रत, पाँच समिति, तीन गुप्ति रूप तेरह प्रकार के चारित्र पालन से शून्य हैं, मठादि के निर्माण में अपनी पर्याय को नष्ट करें, निर्वाण मार्ग से शून्य रहें, आश्रम-वास पर दृष्टि रखें, द्रव्यसंयम के गुणों से भी शून्य रहें, वे श्रमणाभास हैं,