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स्वरूप-संबोधन-परिशीलन
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करता है। न्याय किसी व्यक्ति, पंथ, संप्रदाय, धर्म, जाति, प्रान्त या दर्शन-विशेष का नहीं होता, किन्तु वह तो सूर्य की भाँति सभी का सन्मार्ग-दर्शक, कर्तव्य-पथ-प्रदर्शक होता है। वह तर्क की कसौटी पर खरा उतरता है तथा कुतर्क-वादियों को मैदान से उतार देता है। सत्य-श्रद्धा को सशक्त बनाता है, भ्रम्-कारक नहीं, भ्रम-हारक बनाता है। संशयी व्यक्तियों में मौन नहीं, किन्तु मौन होने पर भी मौन खोलता है और उन्हें सम्यक् दिशा देकर उनकी दशा बदल देता है, तभी-तो वह न्याय की कोटि में आता है।
परमपूज्य न्याय-चूड़ामणि, न्यायाचार्य श्री भट्ट अकलंक देव जी ने “स्वरूप-संबोधन" कृति के द्वारा जो आत्म-संबोधन के साथ न्याय-दर्शन को समझाते हेतु गागर में सागर भरा है, वह अद्वितीय है।
आचार्य श्री विशुद्ध सागर जी ने अपनी सरल शैली में इसे आबाल-गोपाल को परोसा है, वह प्रशंसनीय है; वे पर-हितकारी न्याय को टंकोत्कीर्ण बनाते हुए जन-मानस में व्याप्त अन्याय-तिमिर को दूर करते रहें, - यही मेरा उन्हें शुभाशीष है।
ॐ नमः
आचार्य विराग सागर
5/1/1/2535 सिद्ध-क्षेत्र गिरनार