________________
1061
स्वरूप-संबोधन-परिशीलन
श्लो. : 11
ज्ञानी ! संसारी कौन कहता है? -ऐसी जिज्ञासा होने पर कहते हैंजिणवयणे अणुरत्ता, गुरुवयणं जे करंति भावेण। असबल असंकिलिट्ठा ते होंति परित्तसंसारा।।
-मूलाचार, गा. 72 जो जिनेन्द्र-देव के वचनों में अनुरागी हैं, भाव से गुरु की आज्ञा का पालन करते हैं, सबल-परिणाम-रहित हैं तथा संक्लेश-रहित हैं, वे संसार का अन्त करने वाले होते हैं।
ज्ञानियो! गाथा "जिणवयणे अणुरत्ता' शब्द पर ध्यान दीजिए। यहाँ आचार्य-देव जिन-वचन में अनुरक्त शब्द का प्रयोग कर समझा रहे हैं कि मनीषियो! ध्यान रखोसमाधि-सहित मरण चाहते हैं, जिन्हें संसार की संतति को समाप्त करने की इच्छा है, तो अरहन्त-वचनों के अनुरागी बनो, यानी जिनवाणी के अनुसार अपनी आस्था बनाओ एवं तदनुसार व्याख्यान करो, तदनुसार चिन्तन करो। जितना प्रशस्त अध्यवसाय-भाव होगा, उतना ही प्रशस्त-मार्ग स्वयं का ही होगा। ज्ञानी! सत्यार्थ-मार्ग तो तभी बनता है, जब रत्नत्रय की योग्यता स्वयं अंदर जाग्रत हो जावे एवं प्रकट भी हो जाए। मात्र ज्ञान-दर्शन मोक्ष-मार्ग नहीं है, जब सम्यकदर्शन, ज्ञान, चारित्र एक-साथ होंगे तभी भूतार्थ मोक्षमार्ग प्रारंभ होता है। कारण वहाँ पर आगम-कथित सामायिक, छेदोस्थापना, सूक्ष्म-सांपराय, परिहार-विशुद्धि, यथाख्यात आदि इन संयमों में से एक भी नहीं है, जब-तक उक्त पाँच संयम नहीं आते, जीव की तब-तक सकल-संयमी संज्ञा नहीं होती है। ज्ञानी! सत्यार्थ मोक्ष-मार्गी सकल-संयमी ही होता है। संतुष्टि के लिए चतुर्थ-पंचम गुणस्थान की बात कर लें, परन्तु साधकतम कारण मोक्षमार्ग का छठवें गुणस्थान से बनता है। इसके पूर्व सभी कथन उपचार से हैं, असंयम, देश-संयम में सम्यक्त्व व एक-देश-चारित्र है, परन्तु महाव्रत नहीं है। जिनशासन में महाव्रती को ही भूतार्थ मोक्ष-मार्गी कहा है, इसमें शंका नहीं करना। चतुर्थ गुणस्थान-वर्ती मोक्षमार्गी नहीं है, सर्वथा ऐसा भी नहीं समझना, सम्यक्त्व जहाँ प्रकट हुआ है, वहाँ से तत्त्व-दृष्टि प्रारंभ हो चुकी है, मोक्षमार्ग का प्रथम सोपान तो प्रकट हो ही चुका है, परन्तु वहाँ पर जैसा मोक्षमार्ग का साक्षात्-स्वरूप आगम में वर्णित है, वैसा नहीं है, इसलिए उपचार-कथन है। मुक्ति का साक्षात् कारण तो रत्नत्रय की एक-साथ होने वाली अवस्था ही है।