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श्लो. : 11
हों, ऐसे सर्प से अपनी कोई कैसे रक्षा करे ?... अर्थात् बहुत ही दुष्कर कार्य है। मिथ्यात्व का मित्र अनन्तानुबन्धी कषाय, क्रोध, मान, माया, लोभ ये चारों अनन्त चतुष्टय के घाती प्रबल कूटनीतिज्ञ हैं, ये दो-मुखी कैसे ? ... तो समझो - एक ओर तो आत्मा के सम्यक्त्व गुण का घात करते हैं, दूसरी ओर चारित्रगुण का भी घात करते हैं और भगवान् आत्मा को दीर्घकाल तक संसार में फँसाकर रखते हैं, करुणा नाम की वस्तु इसके पास लेशमात्र भी नहीं है, एक क्षण भी नहीं चाहता कि जगत् के जीव मेरे बन्धन से मुक्त हो सकें, परन्तु जैसे- भाड़ में सिकते हुए चनों में से कोई एक ही उचट कर निकलता है, उसीप्रकार नाना जीवों में से मिथ्यात्व के बन्धन से कोई-कोई जीव ही सम्यक्त्व की भूमि को प्राप्त होता है, जिन जीवों की संसार - संतति अल्प है, वे ही भव्य-जीव सम्यक्त्व को प्राप्त कर लेते हैं, तो वे भव्य अर्द्ध- पुद्गल-परावर्तन-काल के अंदर मुक्ति - श्री को प्राप्त हो जाते हैं। यही कारण है कि जिनशासन में सम्यक्त्व को धर्म का मूल कहा गया है
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स्वरूप-संबोधन-परिशीलन
“दंसणमूलो धम्मो”
मूल के अभाव में वृक्ष नहीं होता, उसी प्रकार दर्शन के अभाव में अन्य कोई धर्म नहीं रहता, - ऐसा समझना चाहिए । जो जीव सम्यक्त्व - विहीन होता है, उसका जगत् में कल्याण संभव नहीं दिखता । चारित्र में हीनता होने पर भी यदि सम्यक्त्व निर्मल है, तो वह चारित्र के दोष के माध्यम से शुद्ध कर लिया जाता है, परन्तु सम्यक्त्व - ही का कल्याण नहीं होता । आचार्य भगवन् कुन्दकुन्द स्वामी ने स्पष्ट कहा है
दसंणभट्टा भट्टा दंसणभट्टस्स णत्थि णिव्वाणं । सिज्झति चरियभट्टा दंसणभट्टा ण सिज्झति । ।
- दंसणपाहुण, गा. 3
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अर्थात् जो जीव सम्यग्दर्शन से भ्रष्ट है, वह भ्रष्ट ही है, सम्क्यत्व - विहीन निर्वाण को प्राप्त नहीं होता । चारित्र - विहीन पुनः स्थित होकर सिद्धि को प्राप्त कर लेगा, परन्तु दर्शन से भ्रष्ट सिद्धि को प्राप्त नहीं होता, - ऐसा निश्चय से जानना चाहिए । ज्ञानियो! परिपूर्ण निशंक भाव से समझना - सम्यक्त्व - विहीन की सिद्धि किसी प्रकार भी संभव नहीं, तत्त्व - ज्ञान जहाँ जाग्रत होता है, वहाँ तत्त्व - श्रद्धान होना अनिवार्य है । यदि कदाचित् चारित्र में दूषण लग भी जाए, तो प्रतिक्रमण व प्रायश्चित्त आदि करने से शुद्ध हो जाएगा, पुनः स्व- चारित्र में स्थापित होकर परम- निर्वाण को प्राप्त हो जाता है, परन्तु तत्त्व के प्रति किञ्चित् भी शंका की गई, तो मनीषियो! आत्म-सिद्धि संभव