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श्लो. : 9
स्वरूप-संबोधन-परिशीलन
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...इसीप्रकार जैसा- पुरुष का पुरुषार्थ होता है, वैसा ही पुरुष का परिणमन होता है, कुशल पुरुषार्थ है, तो गति भी कुशल होती है, अकुशल पुरुषार्थ है, तो गति भी अकुशल ही होगी, -इसे कोई टाल नहीं सकता। कुशल यानी पुण्य, अकुशल यानी पाप समझना।
अहो ज्ञानियो! बन्ध, मोक्ष और उनके फल को आत्मा स्वयं ही स्वीकारता है, बन्ध का कर्ता भी जीव है और मोक्ष का कर्ता भी जीव है, ईश्वरादि जीव का कर्ता नहीं है, न पद के फल का अन्य कोई भोक्ता है, जीव स्वयं विकारी-भावों का कर्ता है, जिसके माध्यम से संसार भ्रमण चल रहा है, स्वयं जब जीव विकारी-भावों का अभाव करता है, तब वह मोक्ष को प्राप्त करता है।।६।।
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विशुद्ध-वचन * बिना छैनी के
* जैसेपाषाण से
दिखता नहीं घी प्रतिमा नहीं;
दूध में बिना तप के आत्मा से
पर झलकता है वह, परमात्मा भी नहीं....।
वैसे ही
दिखता नहीं * बड़ा अन्तर है
परमात्मा त्यागी बनकर
प्राणियों में त्याग करने में
पर साफ झलकता है और
मुनियों त्याग करके त्यागी बनने में...।
साधकों को.....।
और