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शुभाशीष
यह
भारतवर्ष ऋषियों के सान्निध्य और उनकी साधना से लाभान्वित होता रहा है, जिसके परिणामस्वरूप स्व-हित के साथ-साथ निरंतर पर-हित भी होता आ रहा है। उसका मूल आधार श्रुत - ज्ञान है, जिसके मूल में निर्ग्रथ- मुनिराज एवं मनीषी-वर्य हैं।
यह व्यवस्था अनादि से चली आ रही है और अनन्त काल तक चलती चली जाएगी। इस श्रुत-ज्ञान की परम्परा और निर्ग्रथ-परम्परा में वर्तमान में आचार्य आदिसागर जी "अंकलीकर", आचार्य महावीर कीर्ति जी, आचार्य विमल सागर जी, आचार्य विराग सांगर जी आदि हैं, जिन्होंने निर्ग्रथ-परम्परा को श्रुत - ज्ञान से जोड़ने में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है।
उन्होंने अपने परम्परागत ज्ञान को अपने सुयोग्य शिष्य आचार्य विशुद्ध सागर को प्रदान किया। परम्परा से प्राप्त श्रुत को पाकर श्रुत- परम्परा को वृद्धिंगत करते हुए आचार्य विशुद्ध सागर ने भट्ट अकलंक आचार्यदेव के द्वारा प्रणीत ''स्वरूप- संबोधन ” नामक ग्रंथ को अपने अमूल्य ज्ञान व समय देकर इसप्रकार सम्बर्द्धित किया, ताकि सामान्य-ज्ञानी व्यक्ति भी समझकर आत्म-हित कर सके, – इस पवित्र भावना से इसके गूढ़ रहस्य को समझाया है।
यह कृति सरल-सरस व मिष्ठ भाषा में है। हित- मित- प्रिय होने से भव्यात्माओं को इस ग्रंथ के अध्ययन में रुचि होगी, – ऐसी भावना है। अतः आचार्य विशुद्ध सागर का यह समाज के लिए महोपकार है।
इस ग्रंथ के प्रकाशन का कार्य उत्तम है, इस उत्तम कार्य के सहयोगियों को मेरा शुभआशीर्वाद है। वे परोपकारी-जन दीर्घ काल से प्रकाशित होने वाले शास्त्रों का सम्पादन जीवंत निष्ठा एवं परिश्रम से कर रहे हैं। इस अर्थ - युग में निर्लोभ और निरपेक्ष-वृत्ति से सम्पादित-प्रकाशित की जाने वाली यह कृति दीर्घ काल तक बनी रहे । सम्पादक, सहयोगी व पाठक पढ़ करके स्वयं परम-विकास-मय एवं शांति - सफलता-मय बनें तथा वे इसीतरह जिनवाणी की सेवा करते हुए केवलज्ञान - ज्योति को प्रगट करें ।
आचार्य सन्मति सागर
मार्च, 2009