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स्वरूप-संबोधन-परिशीलन
श्लो. : 8
है, -इसप्रकार समझना चाहिए। आत्मा विधि-निषेध रूप है, आचार्य-प्रवर ने बहुत ही सुंदर ढंग से प्रतिपादन किया है, ज्ञान-दर्शन व सुख-वीर्य-स्वभावी होने से विधि-रूप है। साथ ही स्पर्श, रस, गंध, वर्ण-धर्मी नहीं होने से निषेध-रूप है। ____ मूर्तिक भी है आत्मा, अमूर्तिक भी है आत्मा। स्पर्श-रस-गन्ध-वर्ण निश्चय नय से आत्मा में नहीं पाये जाते, इसलिए आत्मा अमूर्तिक-स्वभावी है, परन्तु बन्ध की अपेक्षा से व्यवहार नय से आत्मा मूर्तिक भी है, अनेकान्त है। दूसरी बात यहाँ पर यह भी समझना कि ज्ञान साकार होता है, ज्ञान-मूर्तिक होने से आत्मा मूर्तिक है, तथा पुद्गल-भूत मूर्त-धर्म-रहित होने से अमूर्तिक है। यहाँ पर जीव को जो अमूर्तिक कहा गया, वह जीव-स्वभाव का कथन तो है, साथ ही इस कथन से चार्वाकों के आत्मा-विषयक स्पर्श, रस, गन्ध, वर्णादि-रूप मूर्तिकत्व का निराकरण होता है।।८।।
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* निहारते हैं प्राणी आँखों से और योगी आगम से.......।
विशुद्ध-वचन
* स्वर्ण-पाषाण को भट्टी में तपाने पर निकलता है सोना; वैसे ही शरीर को साधना की भट्टी में झोंकने पर मिलता है शिव
और मोक्ष...........।
* सबके साथ रहना
पर
मत छोड़ देना स्वयं का साथ....।