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श्लो. : 6
स्वरूप - संबोधन - परिशीलन
श्लोक - 6
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उत्थानिका - पुनः शिष्य जिज्ञासा प्रकट करता है- भगवन्! एक ही आत्मा क व अनेक किस प्रकार है?
समाधान- आचार्य-देव कहते हैं
नानाज्ञानस्वभावत्वादेकोऽनेकोऽपि नैव सः ।'
चेतनैकस्वभावत्वादेकानेकात्मको
भवेत् ।।
अन्वयार्थ— (सः) वह आत्मा, (नाना - ज्ञान - स्वभावत्वात् ) अनेक प्रकार के ज्ञान - स्वरूप स्वभाव होने से, (अनेक: अपि) अनेक होते हुए भी, (चेतनैकस्वभावत्वात्) चेतना मात्र स्वभाव होने से, (एकः ) एक होता हुआ भी सर्वथा एक भी, (नैव) नहीं है, किन्तु, (एकानेकात्मकः) एक तथा अनेकात्मक, (भवेत् ) ही मानने योग्य है / माना जाना चाहिए । । 6 । ।
परिशीलन- आचार्य-देव स्याद्वाद् सिद्धान्त के सूत्रों को अनेक विद्याओं से मुमुक्षुओं के मध्य रख रहे हैं । प्रत्येक द्रव्य निज द्रव्यत्व-शक्ति से एक रूप है और वे ही द्रव्य पर्याय-दृष्टि से अनेक रूप हैं । इसीप्रकार से जीव द्रव्य एकानेक रूप हैं, जैसे कि एक पुरुष स्वयं में एक है, परन्तु विभिन्न संबंधों से देखें, तो अनेक रूप है। राम एक जीव-द्रव्य है, निज चैतन्य-धर्म से देखें, तो अकेले हैं, परन्तु राम में अनेक धर्म हैंसीता की दृष्टि से पति-धर्म भी राम में है, लव - कुश की अपेक्षा पितृ-धर्म भी राम में है, दशरथ की दृष्टि से पुत्र-धर्म भी राम में है, मातुल की अपेक्षा भाग्नेय धर्म भी है, तो एक राम अनेक-रूप-मयी हैं, जितने प्रकार के संबंध स्थापित होते जाते हैं, उतने ही प्रकार से वस्तु देखी जाती है। अहो ! एक ही द्रव्य में इष्ट धर्म, एक ही द्रव्य में अनिष्ट धर्म भी देखा जाता है । कुचला नामक औषधि विष है, सीधे सेवन की जाये तो, मृत्यु का कारण है और उसे संस्कारित कर सेवन किया जावे, तो वह रोग निवारण का साधन बन जाती है। अतः यह अच्छी तरह से समझना है कि द्रव्य एक-धर्मात्मक
1. इस श्लोक की पहली पंक्ति का निम्न पाठ और मिलता है तथा निम्न पाठ ही ग्राहय क्यों हो?... इसके आधार वहाँ उल्लिखित नहीं हैं, परन्तु अर्थ की दृष्टि से व बहु-प्रति- अनुपलब्धता के कारण वह ग्राहय नहीं है; अतः हम उक्त पाठ ही स्वीकारते हैं
नानाज्ञानस्वभावत्वादेकानेकोऽपि नैव सः ।