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श्लो. : 5
राहु-केतु के विमान आ जाते हैं, तो उनके प्रकाश में मंदता आ जाती है। कोई किसी को न निगलता है, न कष्ट देता है, इस विपरीतता का त्याग करो । आगम जाने बिना सहसा किसी भी व्यक्ति की बात नहीं मान लेना। लोक- मूढ़ता का त्याग करना चाहिए। ऐसी लोक-मूढ़ता में नहीं आना चाहिए, जिससे अपने सम्यक्त्व एवं चारित्र दोनों की हानि हो जाए। वह लोक - रूढ़ि कथञ्चित् स्वीकार है, जिससे सम्यक्त्व व चारित्र की हानि न होती हो ।
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स्वरूप-संबोधन-परिशीलन
ज्ञानियो! आज वर्तमान में सर्वत्र मिथ्यात्व की वृद्धि देखी जा रही है, विद्यालयों से लेकर श्मशान-भूमि तक तत्त्व के प्रति विपरीतता दिखायी देती है । आत्मा के विषय बहुत ही भ्रान्ति है । विभिन्न दर्शनों में कुछ नास्तिक-दर्शन तो आत्मा की सत्ता को ही स्वीकार नहीं करते। बहुत बड़ा आश्चर्य है । अरे! जीव कैसे हैं? .....स्वयं जीवत्व के भाव से युक्त होने पर भी जीवत्व के अभाव की सिद्धि में जीवन नष्ट कर रहे हैं । अहो! अज्ञानता की सीमा तो देखो! कितना अज्ञान है, स्वयं को जड़ घोषित करने में धर्म स्वीकारते हैं, तथा जड़ता की सिद्धि हेतु अनेक प्रकार के हेतु, शास्त्र भी निर्मित कर लिये हैं, अपनी मान्यता की पुष्टि के निमित्त, तर्क देकर दर्शन - शास्त्र तैयार कर लिये, षड्दर्शनों में भी सभी दर्शन स्व-मत की पुष्टि का ही प्रयास करते हैं, पर सत्यता का ज्ञान तो मनीषियो! तटस्थ होकर ही सम्भव दिखता है । सत्य की खोज करना है, तो मध्यस्थ होकर ज्ञाता-दृष्टा भाव में लीन होना होगा । स्व-प्रज्ञा को शान्त करके चिन्तवन करना चाहिए कि भूतार्थ मार्ग क्या है ?... किसी भी दर्शन में बहना नहीं, बहकना नहीं, सर्वप्रथम स्व-प्रज्ञा से तर्क लगाना चाहिए कि सत्यता कहाँ तक है ?... लोक कहता है अथवा वृद्ध वचन हैं, इसलिए बात प्रामाणिक नहीं होती है । वक्ता प्रामाणिक होना चाहिए, वक्ता के वचन युक्ति एवं आगम से सम्मत हैं या नहीं, - इस बात पर विचार करना अनिवार्य है, आप्त-वचन आगम प्रमाण ही होते हैं, आप्त-वचन ही आगम हैं, - ऐसा आर्ष - वचन है ।
आप्त-वचनादि-निबन्धनमर्थ-ज्ञानमागमः ।
- परीक्षामुख, सूत्र 3 / 95
आप्त के वचनादि के निमित्त से होने वाले अर्थ- ज्ञान को आगम कहते हैं, उक्त आगम-वचन ही प्रामाणिक है, अन्य नहीं । विभिन्न मतों में आत्मा के स्वरूप में बहुत भिन्नता है।
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