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श्लो. : 4
है ?... ऐसा प्रश्न उत्पन्न होने पर जिससे ज्ञात होता है, वह स्वभाव है । एक द्रव्य का स्वभाव अन्य द्रव्य रूप किसी भी काल में किसी क्षेत्र में नहीं होता, प्रत्येक द्रव्य का स्वभाव निज द्रव्य-रूप ही रहता है, जो स्वभाव है, वही तो वस्तु का गुण है । गुणी में गुण का अविनाभाव है, बिना गुण के गुणी और बिना गुणी के गुण नहीं होता, आकाश-पुष्प-वत्। धर्म-धर्मी न्याय की भाषा में कहें, तो जहाँ धर्मी होगा, वहाँ पर नियम से धर्म होगा; जहाँ धर्म होगा, वहाँ नियम से धर्मी होगा। जैसे- जहाँ अग्नि होगी, वहाँ पर उष्णता नियम से होगी, यह ध्रुव सत्य है, अग्नि के बिना उष्णता, उष्णता के बिना अग्नि नहीं हो सकती; अग्नि का लक्षण ही उष्णता है, जैसे- पानी का लक्षण शीतलता है । धर्म द्रव्य का असाधारण लक्षण गति-हेतुत्व, अधर्म - द्रव्य का असाधारण धर्म स्थिति - हेतुत्व, आकाश का धर्म अवगाहन - हेतुत्व, काल द्रव्य का धर्म वर्तना- हेतुत्व, पुद्गल का धर्म मूर्तत्व एवं पूरण- गलना रूप उसमें रहने वाला असाधारण धर्म है, इसीप्रकार जीव का असाधारण लक्षण चेतनत्व व ज्ञान - दर्शन - स्वभाव है। आत्मा त्रिकाल ज्ञान - दर्शन - सम्पन्न रहता है, किसी भी अवस्था में ज्ञान - दर्शन से आत्मा भिन्न नहीं होती, - ऐसा समझना । ......पर यहाँ पर तो भिन्न भी ऐसा कहा है। ज्ञान आत्मा से भिन्न है तथा अभिन्न भी है । प्रश्न यहाँ हो सकता है कि एक ही द्रव्य में एक ही काल में भिन्नत्व-भाव व अभिन्नत्व-भाव कैसे घटित होगा ? - ऐसा प्रश्न स्याद्वाद् - विद्या से अनभिज्ञ के अन्तःकरण में जन्म लेगा, स्याद्वाद्-तत्त्व को जानने वाले मुमुक्षु के मन में इस प्रश्न का जन्म ही नहीं हो सकता, स्याद्वादी तो अनेकान्त-धर्म को जानता है, वहाँ ये प्रश्न नहीं होते, वहाँ तो इन प्रश्नों का समाधान होता है। बिना स्याद्वाद् के मनीषियो! सम्यग् - रूपेण तत्त्व-ज्ञान सम्भव नहीं है, प्रत्येक वस्तु का ज्ञान सप्तभंगात्मक है, एक-एक भंगों का एकान्त भी मिथ्यात्व-रूप है, एक-एक सम्यक्-भंगों का समूह ही अनेकान्त है । सम्यक् - वक्ता प्रत्येक व्याख्यान को अनेकान्त-दृष्टि से, स्याद्वाद् की भाषा में करता है। जबकि मिथ्या-दृष्टि एकान्त-पक्ष से ग्रसित होकर स्व-मति को दूषित करता है और एक मात्र दुर्गति का ही भाजन होता है, भव-भ्रमण का बन्ध ही करता है, मारीचि के जीव से पृच्छना कर लीजिएएक बार के विपरीत - श्रद्धान एवं प्रतिपादन का क्या परिणाम निकला? आदिनाथ स्वामी की भी देशना कार्यकारी नहीं हुई, जब उपादान निर्मल हुआ, परिणति विशुद्ध हुई, तब देशना काम कर पायी । भटकाव कितना ही हो गया हो, पर अन्त में शरण वहीं जाना पड़ा, जिस मुद्रा को त्याग कर एकान्त मत में आकर सांख्यदर्शन की प्रवृत्ति की, लेकिन सार क्या निकला, अनेकों को भ्रमित कर गये, पर
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स्वरूप-संबोधन-परिशीलन
.........भ.