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स्वरूप-संबोधन-परिशीलन
श्लो . : 3
भो ज्ञानियो! एक मिथ्यादृष्टि मिथ्यामार्ग में इतना दृढ़ है, फिर हम वीतराग सम्यक्-मार्ग के प्रति मृदु क्यों बने हैं, अर्हन्मत साक्षात्-सिद्धि का निलय है, इसे कौन भव्य त्याग सकेगा?.... अहो! अभागे ही छोड़ने का विचार कर सकेंगे, सम्यग्ज्ञानी भाग्यवान् तो स्वप्न में भी जिन-शासन से अपने-आपको पृथक् करने से भयभीत हो जाएगा। तत्त्व-ज्ञानी सत्यार्थ-मार्ग का कभी भी त्याग नहीं करता। जो जीव जिन-शासन से भिन्न होकर आत्म-शान्ति निर्वाण-सुख की अभिलाषा रखता है, वह अज्ञ सूखे सरोवर में कमल खिलाने की भावना रखता है, पर वह सम्भव नहीं है। अहो मेरे मित्र! मेरी इतनी बात प्रेम से स्वीकार कर लेना- किसी भी स्थिति में वीतराग-सर्वज्ञ-शासन से अपने आप को पृथक् नहीं करना, सम्पूर्ण विश्व में समीचीन मार्ग कोई है, तो मात्र अर्हत्-शासन ही है। ईर्ष्यालु की ईर्ष्या से भगवन्त में न्यूनता नहीं आती, भूतार्थ तो भूतार्थ ही रहेगा, ईर्ष्या वही करता है, जिसका स्वयं पुण्य क्षीण होता है और स्वयं के यश व पूजा की भावना रखता है, पर ईर्ष्या से कभी पूजा नहीं होती, पूजा तो पुण्योदय होने पर ही चरित्रवान् की ही होती है।।३।।
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विशुद्ध-वचन * परिणाम निर्मल
* भुजबल तो लाठी
वह नहीं सहारा, पर यदि खोदें पवित्रता
मंथन करे परिणाम.....,
समुद्र में; तो चोट कर देती
भुजबल वह वह
जो मथे सर पर....।
कषायों को.....। * हे मुमुक्षु !
* सब खो देते विवेक यदि नष्ट करना है
तूफान और आवेग में, कर्मों को,
विरले होते तो नष्ट कर
जो रख पाते विवेक कषायों को....|
वेग और आवेग में भी...।
जो