________________
तेरहवां प्रकाश
मैत्री भावना
१. 'सद्धर्मध्यानसंधान-हेतवः श्रीजिनेश्वरैः।
मैत्रीप्रभृतयः प्रोक्ताश्चतस्रो भावनाः पराः।।
पवित्र धर्मध्यान के संधान करने में हेतुभूत मैत्री आदि (कारुण्य, प्रमोद तथा माध्यस्थ) अन्य चार भावनाओं का तीर्थंकरों ने निरूपण किया है। २. 'मैत्रीप्रमोदकारुण्य-माध्यस्थ्यानि नियोजयेत्।
धर्मध्यानमुपस्कर्तुं तद्धि तस्य रसायनम्।
धर्मध्यान का उपस्कार (संस्कार) करने के लिए व्यक्ति मैत्री, प्रमोद, कारुण्य और माध्यस्थ्य भावनाओं का अपने अन्तःकरण में नियोजन करें। वह नियोजन धर्मध्यान के लिए रसायन है। ३. मैत्री परेषां हितचिन्तनं यद्, भवेत् प्रमोदो गुणपक्षपातः।
कारुण्यमार्ताऽङ्गिरुजां जिहीपेत्युपेक्षणं दुष्टधियामुपेक्षा।
दूसरों का हितचिन्तन करना मैत्रीभावना है। गुणों के प्रति अनुराग होना प्रमोदभावना है। दःखी प्राणियों के कष्टनिवारण की इच्छा करना कारुण्यभावना है तथा दुष्टबुद्धि वाले लोगों के प्रति उदासीन रहना उपेक्षा या माध्यस्थ्य भावना है। ४. सर्वत्र मैत्रीमुपकल्पयात्मन्!, चिन्त्यो जगत्यत्र न कोऽपि शत्रुः।
कियद्दिनस्थायिनि जीवितेऽस्मिन्, किं खिद्यसे वैरिधिया परस्मिन्।
हे आत्मन्! तू सर्वत्र मैत्री की उपकल्पना कर, अनुप्रेक्षा कर। इस जगत् में मेरा कोई भी शत्रु नहीं है, ऐसा अनुचिन्तन कर। यह जीवन कितने दिनों
१-२. अनुष्टुप्। ३-४. उपजाति।