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बोधिदुर्लभ भावना अन्तरंग शत्रुवर्ग बाधा उत्पन्न कर देता है। यह (शत्रुवर्ग) राग, द्वेष, श्रम (संयमाचरण में थकान), आलस्य और निद्रा आदि है। उसके द्वारा सुकृत के प्रसंग हत-प्रहत होते रहते हैं।
चतुरशीतावहो! योनिलक्षेष्वियं,
क्व त्वयाकर्णिता धर्मवार्ता। प्रायशो जगति जनता मिथो विवदते
ऋद्धि-रस-सात-गुरु-गौरवार्ता॥७॥ आश्चर्य है! इस चौरासी-लक्ष परिमित जीवयोनि में तूने धर्मवार्ता कहां सुनी? इस जगत् में प्रायः जनता ऋद्धि, रस और सुख के गुरु-गौरव से पीड़ित बनी हुई परस्पर विवाद कर रही है। एवमतिदुर्लभात्प्राप्य दुर्लभतमं,
बोधिरत्नं सकलगुणनिधानम्। कुरु गुरु-प्राज्य-विनय-प्रसादोदितं,
शान्तरससरसपीयूषपानम्॥८॥ इस प्रकार समस्त गुण के निधान दुर्लभतम बोधिरत्न को अत्यन्त दुर्लभता से पाकर तू शान्तरसरूपी सरस अमृत का पान कर, जो गुरु के प्रति किए जाने वाले प्रचुर विनय के प्रसाद से उपलब्ध होता है।