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आशीर्वचन
'शान्तसुधारस' गीर्वाणवाणी में गेयकाव्य है। इसकी रचना हमारे संघनिर्माण से पहले की है, पर इसका प्रचलन तेरापंथ धर्मसंघ में अधिक हुआ है। यहां इसके मूलस्रोत पूज्य गुरुदेव कालूगणी रहे हैं। उस समय शान्तसुधारस के दो-चार गीत पन्नों में लिखे हुए थे, गुरुदेव ने वे मुझको सिखलाए। प्रवचन के समय मेरे द्वारा उनका संगान करवाते और गुरुदेव स्वयं व्याख्या करते। गुरुदेव का स्वर्गवास होने के बाद मैंने इस ग्रन्थ की खोज करवाकर पूरा ग्रन्थ कंठस्थ किया। उसके बाद तो सैकड़ों साधु-साध्वियों ने इसको याद कर लिया।
शान्तसुधारस संगान में जितना मधुर है, उतना ही भावपूर्ण है। संगायक और श्रोता तन्मय होकर इसके प्रवाह में बह जाते हैं। इसका कोई हिन्दी अनुवाद नहीं था और यत्र तत्र पाठ की अशुद्धियां भी। कालान्तर में हमारे साधुओं ने इसका अनुवाद किया। पाठ-शोधन का काम युवाचार्य महाप्रज्ञ (आचार्य महाप्रज्ञ) के सान्निध्य में हुआ।
शिष्य मुनि राजेन्द्रकुमार ने शान्तसुधारस के सानुवाद सम्पादन का काम अपने हाथ में लिया। इसने अनुवाद के साथ-साथ भावनाबोधक कथाएं भी जोड़ दी, इससे यह अनुवाद सबके लिए सुबोध और सुप्राप्य हो गया।
मुनि राजेन्द्र धुन का धनी है, लगनशील है और तन्मयता से काम करता है। इसकी कार्यक्षमता उत्तरोत्तर वृद्धिंगत हो, यही शुभाशंसा है।
जोधपुर २४ अक्टूबर, १९८४
आचार्य तुलसी (गणाधिपति तुलसी)