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संसार भावना
इस संसार में यह कालरूपी ठग मनुष्य को पहले सुख और वैभव दिखाता है, फिर अचानक ही उसको समेट लेता है। इस प्रकार वह बच्चे की भांति मनुष्य को ठग लेता है।
सकलसंसारभयभेदकं, जिनवचो मनसि निदधान रे।। विनय! परिणमय निःश्रेयसं, विहितशमरससुधापान रे!॥८॥
हे विनय! तू संसार के समस्त भय को विनष्ट करने वाले जिनवचन को मन में धारण कर और शान्तरसरूपी अमृतरस का पान कर। इस प्रकार तू मोक्ष का वरण कर।