________________
१. संकेतिका
मनुष्य दो आयामों में जीता है। एक आयाम है-संयोग का तो दूसरा आयाम है-वियोग का। संयोग में वह प्रसन्न होता है और वियोग में विषण्ण। 'संयोगाः विप्रयोगान्ताः' जिसका संयोग होता है उसका वियोग अवश्य होता है। यह एक सचाई है, इसे अस्वीकार नहीं किया जा सकता। इस जगत् में ऐसा कोई भी पौद्गलिक पदार्थ नहीं है जो शाश्वत, ध्रुव और नित्य हो। अनुत्तर देवों के सुख भी कालक्रम से बीत जाते हैं, अपने प्रियजन बिछुड़ जाते हैं, धनसंपत्ति क्षीण हो जाती है। ऐसी स्थिति में शाश्वत और नित्य ही क्या है जिसका अवलम्बन लिया जा सके? संयोग वियोग से और वियोग संयोग से संवलित है। यह क्रम सदा से ही चला आ रहा है और यह संसार का सार्वभौम नियम है। जो मूढ़ व्यक्ति अज्ञान और मूर्छा में जीता है, विपर्यासों को पालता है, उसका दृष्टिकोण कभी सम्यक् नहीं हो सकता। यही मिथ्या दृष्टिकोण उसके दुःखी होने का निमित्त बनता है। जब उसके सामने वियोग की कोई घटना घटती है तो वह सोचता है कि ऐसा क्यों हुआ? वह सहसा दुःखी हो जाता है। यह संसार परिवर्तनशील है। जो आता है, निश्चित एक दिन जाता है। स्थिरता नाम का कोई तत्त्व है ही नहीं। सब कुछ अनित्य है। 'इमं सरीरं अणिच्चं' यह शरीर अनित्य है। धन, परिवार और यौवन अनित्य है। सुखसंपदा अनित्य है। सब कुछ अनित्य है। नित्य कुछ है ही नहीं, मात्र एक संयोग है-इस सचाई को जानने वाला व्यक्ति अमूढ़ होता है। वह कभी दुःख नहीं भोगता, केवल दुःख को जानता है। मूढ़ आदमी दुःख को जानता भी है और भोगता भी है, यही भेदरेखा मूढ़ और अमूढ़ की पहचान कराती है। भगवान् महावीर ने शरीर को मध्यबिन्दु बनाकर अनित्य अनुप्रेक्षा का एक महत्त्वपूर्ण सूत्र दिया
से पुव्वं पेयं पच्छा पेयं भेउर-धम्मं, विद्धंसण-धम्मं, अधुवं, अणितियं, असासयं, चयावचइयं विपरिणाम-धम्मं, पासह एयं रूवं।
(आयारो, ५/२९)