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पारिभाषिक शब्द
१७९ मार्गानुसारी-जो सम्यग्दृष्टि नहीं है, किन्तु मोक्षमार्ग का अनुसरण करने वाली
क्रिया करता है उसका नाम है मार्गानुसारी। मिथ्यात्व-विपरीत दृष्टिकोण। धर्म को अधर्म, मार्ग को अमार्ग आदि मानना
मिथ्यात्व है। मृग-मरीचिका-मिथ्याभ्रम। मैत्री भावना-दूसरों का हितचिन्तन करना, कल्याण की भावना रखना। मोक्ष सुख–मुक्ति का सुख, अनाबाध सुख। मोह-जीव के दर्शन (श्रद्धा) और चारित्र को आच्छादित कर आत्मा को व्यामूढ़
बनाने वाला कर्म। योग-प्रवृत्ति। उसके तीन प्रकार हैं-मन की प्रवृत्ति, वचन की प्रवृत्ति और काय की
प्रवृत्ति। रज्जु-असंख्य योजन जितने क्षेत्र-मान को रज्जु कहते हैं। अथवा कोई व्यक्ति एक
निमेष में एक लाख योजन की गति करता है। इस गति से छह महीनों में
अवगाहित क्षेत्र को एक रज्जु कहते हैं। रत्नत्रय-सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन और सम्यग्चारित्र–इस त्रिपदी का संयुक्त
नाम। रागद्वेष-प्रियता और अप्रियता का संवेदन। रौद्रध्यान-हिंसा, असत्य, चोरी एवं विषय-भोगों की रक्षा के लिए की जाने
वाली एकाग्र-चिन्ता। लब्धि-योग के अभ्यास से प्राप्त होने वाली विशिष्ट शक्ति। लोक-जिसमें धर्म, अधर्म, आकाश, काल, पुद्गल और जीव-ये छह द्रव्य होते
लोकपुरुष-जैनदर्शन में लोक को पुरुषाकार मानकर उसकी व्याख्या की है। उसके
तीन भाग हैं-ऊर्ध्वलोक, अधोलोक और तिर्यक्लोक। लोक भावना-पुरुषाकाररूप लोक की विविधता का अनुचिन्तन करना, उसमें
एकाग्र होना। वर्णस्थान-शब्दोच्चारण के आठ स्थान ये हैं कण्ठ, तालु, मूर्धा, दन्त, ओष्ठ,
जिह्वामूल, नासिका और उर।