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चिन्तन और अचिन्तन- दोनों भावधाराएं हमारे भीतर काम करती हैं। अचिन्तन साधना की निर्विकल्प पद्धति है, चिन्तन सविकल्प। प्रेक्षा जानने और देखने की पद्धति है, अनुप्रेक्षा चिन्तन और मनन करने की। क्या ध्यान करने वालों को भी चिन्तन करना आवश्यक है? जब यह प्रश्न सामने आता है तब सहसा यही निष्कर्ष निकलता है कि जितना अचिन्तन आवश्यक है, उतना ही आवश्यक है चिन्तन । जितनी प्रेक्षा आवश्यक है, उतनी ही आवश्यक है अनुप्रेक्षा । प्रेक्षा और अनुप्रेक्षा के योग से ही पूरी निष्पत्ति सामने आती है।
प्रस्तुत ग्रन्थ अनुप्रेक्षा की एक महत्त्वपूर्ण कृति है। ग्रन्थकार ने इस ग्रन्थ को विविध राग-रागिनियों में गुम्फित कर इसमें अध्यात्मरस को उंडेलने का प्रयत्न किया है। इसमें सोलह अनुप्रेक्षाएं हैं। ये जैन-साधना पद्धति की आधारशिलाएं हैं। इनके सतत अनुचिन्तन से भीतर में होने वाली सुषुप्ति और मूर्च्छा का भाव क्षीण होता है, सचाई उपलब्ध होती है। साधना के मार्ग को प्रशस्त करने के लिए यह लघु कृति जन-जन के लिए उपयोगी है।