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शान्तसुधारस धर्म-अनुशासन में चले गए। केवल बहली देश के राजा बाहुबलि ही ऐसे थे जो भरत का आधिपत्य स्वीकार करना नहीं चाहते थे। इससे भरत बड़े असमंजस में पड़ गए। एक ओर चक्रवर्ती बनने का अहं तो दूसरी ओर अपने भाई की अनुशासनहीनता की असह्य स्थिति। एक ओर भाई के साथ युद्ध करने का पाप तो दूसरी ओर लोकनिन्दा का भय। एक प्रकार की दुविधा उनके सामने उपस्थित थी। चक्ररत्न तब तक आयुधागार में प्रविष्ट नहीं होता जब तक वे अपने भाई को नहीं जीत लेते। इसलिए बाहुबलि को जीतना आवश्यक था। उन्होंने बाहबलि के साथ युद्ध किया और बाहुबलि उस युद्ध में विजयी हुए, पर युद्धभूमि से ही उनके चरण विरक्ति की ओर गतिमान हो गए।
इस घटना से सम्राट भरत के मन में एक तीव्र प्रतिक्रिया हई। अब उनके सामने भ्रातृत्व जैसा कुछ रहा ही नहीं। केवल अहंपोषण और राज्यलिप्सा के अतिरिक्त बचा ही क्या था? सारा आमोद-प्रमोद भाई के साथ ही समाप्त हो गया। तब से वे निर्लिप्त और अनासक्ति का जीवन बिताते हुए शासनसूत्र का संचालन कर रहे थे।
विनीता में समवसृत भगवान् ऋषभ को पाकर सम्राट भरत आज प्रसन्नमना दिखाई दे रहे थे। उनकी आध्यात्मिक चेतना भगवान् का सान्निध्य चाहती थी। जब वे भगवान् के समवसरण के समीप पहुंचे तो दूर से उन्होंने समुत्सुक और अतृप्त-नेत्रों से उस त्रिभुवनमोहिनी मुद्रा को देखा। भगवान् को देखते ही पुत्र भरत का पिता के प्रति होने वाला नैसर्गिक ममत्व जाग उठा। वे अपने आपको रोक नहीं सके। क्षणभर के लिए आंखें डबडबा आईं। सहसा उन्हें एक-एक कर अतीत की स्मृतियां सताने लगीं। उन्होंने सोचा–अरे! जिस पिता ने मुझे पाला-पोसा, बड़ा किया, आज वे जगत्बन्धु बन गए। क्या मैं उन्हीं महान् पिता का पुत्र हूं? अन्तर् में एक प्रकार का स्पन्दन हो रहा था। सहसा
आंखें अपने आप पर विश्वास नहीं कर रही थीं। न जाने बचपन से लेकर अब तक कितने संस्मरण उनके जीवन-अध्याय के साथ जुड़े हुए थे। मन कर रहा था कि शिशु की भांति पिता की छाती से लिपट जाऊं, किन्तु अब वह स्थिति बदल चुकी थी। भगवान् ऋषभ सम्राट् ऋषभ नहीं रहे। वे समत्व के धरातल पर खड़े थे। उनकी करुणा व्यापक बन चुकी थी। अब वे सीमा से अतिक्रान्त होकर निस्सीम जीवन जी रहे थे। अहंकार और ममकार की ग्रन्थियां टूट चुकी थीं। उनके लिए न कोई पैतृक सम्बन्ध था और न ही कोई पौत्रिक। सब सम्बन्धों से अतीत केवल शेष बचा था आध्यात्मिक सम्बन्ध। चक्रवर्ती की नवनिधि उस