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शान्तसुधारस चंडकौशिक का वही मंडप क्रीड़ास्थली था। एक विचित्र योग। भगवान् मंडप के मध्य कायोत्सर्ग मुद्रा में खड़े हो गए। उनके दोनों हाथ नीचे की ओर झूल रहे थे, अंगुलियां घुटनों को छू रही थीं। सटी हुई एड़ियां पंजों के बीच चार अंगुल का अन्तराल तथा अनिमेष चक्षु नासाग्र पर टिके हुए थे। वे मन-वचन और काय को व्युत्सृष्ट कर चुके थे। बाह्य जगत् से उनका सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद हो चुका था। मुखमंडल पर एक प्रकार की दीप्ति और आभा झलक रही थी। उनका आभामंडल अपने चारों ओर शान्ति और करुणा के परमाणुओं का विकीर्ण कर रहा था।
शाम का समय। सूर्य का आतप ढलता जा रहा था। चंडकौशिक ने दिन भर जंगल में क्रीड़ा की और शाम को घूमघाम कर अपने देवालय में आ रहा था। समीप आते ही उसने किसी पुरुष को अपने स्थान पर देखा। तत्काल वह स्तब्ध रह गया। जो मंडप वर्षों से निर्जन था और कोई उसके परिपार्श्व में पैर भी नहीं रखना चाहता था, वहां किसी व्यक्ति का आकर ठहरना अपने आपमें एक प्रश्नचिह्न था। चंडकौशिक ने आज पहली बार ही अपनी क्रीड़ा-भूमि में किसी मनुष्य को देखा था। वह कब सहन करने वाला था अपने स्थान में किसी दूसरे का प्रवेश। तत्काल उसका फन उठ गया। दृष्टि विष से व्याप्त हो गई। भयंकर फुफकार के साथ उसने महावीर को देखा। पर उसका कोई प्रभाव नहीं हुआ। दूसरे तीसरे क्षण भी उसने महावीर को गिराने की दृष्टि से फिर देखा, पर वह व्यक्ति अभी भी वैसे ही खड़ा था, जैसे पहले खड़ा था। चण्डकौशिक का महावीर पर कोई असर नहीं था। उसने मन ही मन सोचा–मेरी प्रथम दृष्टि ही मनुष्य को भस्मीभूत करने के लिए पर्याप्त है, फिर यह ऐसा कौन पुरुष है जिस पर मेरा कोई असर ही नहीं! विफलता ने उसे और अधिक क्रोधित बना दिया। पुनः उसने सूर्य के सामने देख दृष्टि को विष से भरा और वेगपूर्वक विषसंकुल दृष्टि भगवान् पर डाली। प्रयास विफल रहा। भगवान् अब भी पर्वत की भांति अप्रकम्प खड़े थे। बार-बार का प्रयास चण्डकौशिक के क्रोध को सीमातीत कर रहा था। वह क्रोध से उबल पड़ा। तत्काल भयंकर क्रोध के साथ वह आगे सरका। उसका शरीर क्रोध से उछल रहा था, लाल आंखें विष को उगल रही थीं, विकराल फन रौद्रता को प्रकट कर रहा था और असिफलक की भांति जीभ लपलपा रही थी। उसकी रौद्रता उत्कर्ष बिन्द तक पहुंच चुकी थी। उसने सारी शक्ति लगाकर भगवान् के बाएं पैर के अंगूठे को डसा। विष की शक्ति भगवान् के ध्यानरूप अमृतरस से परास्त हो चुकी थी; फिर भी चंडकौशिक ने अपने