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प्रमोद भावना
१४. कूरगडूक का ऊर्ध्वारोहण
घटिका में ग्यारह बजने को थे। अन्य दिनों की अपेक्षा काफी विलम्ब हो चुका था और आगे भी विलम्ब होता चला जा रहा था। मुनि कूरगडूक भूख से आकुल-व्याकुल बने हुए प्रवचन के संपन्न होने की राह देख रहे थे और मनही-मन सोच रहे थे कि कब व्याख्यान पूरा हो और कब मैं भिक्षा के लिए जाऊं? मुनिजीवन में आने वाले नानाविध कष्टों को सहते हुए भी उनके लिए भूखा रहना एक महान् दुष्कर तप था। केवल सांवत्सरिक उपवास के अतिरिक्त उन्होंने जीवन में कभी कोई उपवास किया हो, याद नहीं था। अपनी इस अशक्यता पर वे क्षुब्ध तो थे ही, किन्तु करते भी क्या? उन्होंने रसनाविजय की दिशा में एक प्रयोग प्रारम्भ किया। वे भिक्षा में क्रूर-नीरस भोजन लाते और उसे
अनासक्तभाव से खा लेते। अपने इस कठोर तप के कारण उनका नाम भी 'ललितांग' से 'कूरगडूक' पड़ गया। आचार्य विमलद्युति प्रवचन को लम्बा किए जा रहे थे। पर्युषण की चतुर्दशी का दिन था। हजारों-हजारों लोग प्रवचन का रसास्वादन लेते हुए आकंठ उसमें डूबे हुए थे। मुनि कूरगडूक बुभुक्षा के कारण अब अधिक विलम्ब सहन नहीं कर सके। उनके धीरज का बांध टूट गया। वे तत्काल उठे, पात्रियों को झोली में डाला और प्रवचन के मध्य ही आचार्य के पास आकर क्षमा मांगते हुए बोले-'वन्दे भगवन्! गोचरी जाने की आज्ञा।' उनकी इस प्रवृत्ति को देखकर श्रोतागण भी हंसे और उनके साथी मुनिजन भी। आज्ञा शब्द सुनते ही आचार्य विमलद्युति भी कुछ चौंके और तिरछी दृष्टि से शिष्य कूरगडूक को देखते हुए बोले–अरे! कूरगडूक! आज तो पर्युषण की वतुर्दशी है। इस दिन का धार्मिक और आध्यात्मिक दोनों दृष्टियों से कितना महत्त्व है? हजारों-हजारों लोग उपवासी हैं। तेरे सभी समवयस्क साथियों के उपवास है। यदि तू भिक्षा के लिए जाएगा तो मिलेगा क्या? तू ऐसा क्या पेटू हो