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शान्तसुधारस
ध्यान उस रूपवती नर्तिका में उलझा हआ था। वे उसके रूप और यौवन पर मोहित हो चुके थे। वे चाहते थे कि इलापुत्र कलाप्रदर्शन करते-करते मौत के मुंह में चला जाए और वह नटकन्या उसे प्राप्त हो जाए।
रात्री का दूसरा प्रहर। इलापुत्र बांस से नीचे उतरा और पुरस्कार प्राप्त करने के लिए राजा के सामने आ खड़ा हुआ। पर राजा उसे कब पुरस्कृत करने वाला था? मन में दुर्भावना घर कर चुकी थी। महीपति ने रूक्षता के स्वर में कहा-कुमार! दुर्भाग्यवश मैं तुम्हारे नृत्य को नहीं देख सका। मेरा ध्यान राज्यकार्यों में उलझ गया था। यदि तुम उस कला का फिर एक बार प्रदर्शन कर सको....। कुमार पुनः बांस पर चढ़ा और नए उत्साह और जोश के साथ अपनी कला का प्रदर्शन करने लगा। उसकी इस उत्कृष्ट कला को देखकर जनसमूह रोमांचित हो उठा। महारानियां और जनता सभी इस कला से प्रसन्न होकर कुमार को पुरस्कृत करना चाहती थीं, किन्तु पहल कौन करे? जब तक राजा स्वयं संतुष्ट होकर पुरस्कार नहीं देता तब तक दूसरा कौन साहस कर सकता था? कुमार ने नीचे उतर कर पुनः अपनी याचना प्रस्तुत की। राजा के मन में क्रूरता
और निष्ठुरता का उदय हो चुका था। वे नहीं चाहते थे कि इलापुत्र मेरा पुरस्कार प्राप्त करे। वे उसे बांस पर ही मरा हुआ देखना चाहते थे। राजा ने कहा-'कुमार नट! एक बार तुम अपना कौशल और दिखाओ।' कुमार का शरीर पसीने से तर-बतर। नृत्यश्रम के कारण अत्यधिक थकावट। नहीं चाहते हुए भी कुमार राजा के अनुरोध को मानकर अपनी कला का पुनः प्रदर्शन करने लगा। अन्य जनता और नटकन्या भी राजा के इस व्यवहार पर क्षुब्ध थी। नृत्य करते-करते प्रभात हो गया। सूरज की किरणें कुमार के मुख का चुम्बन ले रही थीं। सहसा कुमार की दृष्टि सामने एक गृहपति के घर की ओर चली गई। एक मुनि रूपवती गृहिणी के हाथों भिक्षा ग्रहण कर रहे थे। दोनों में यौवन की मादकता छलक रही थी। न कोई मलिनता और न कोई वासना। एकाकी होते हुए भी मुनि नीची नजरों से अपना कार्य कर रहे थे। इस दृश्य को देखते ही इलापुत्र ने मन ही मन सोचा-अरे कितने त्यागी और कितने वैरागी हैं ये मुनि! नवयुवती के सामने होने पर भी कितनी एकाग्रता और कितनी पवित्रता! निश्छलभाव से अपना कार्य किए जा रहे हैं। कहां तो ये महामुनि और कहां मैं? क्या मैं अपनी चंचलता और वासना के कारण इस नटकन्या के पीछे पागल नहीं हो गया हूं? मैं ऐसा क्या रूप का पुजारी कि जिसके पीछे मैंने अपना घर और माता-पिता को भी छोड़