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शान्तसुधारस
प्रसक्त बने हुए हो। तुम्हारे अन्तःकरण में काम का वेग बह रहा है, इसलिए तुम कुल की अपेक्षा उसी को अधिक मूल्य दे रहे हो । यह तुम्हारे लिए उचित नहीं है। थोड़ा विचारों को परिपक्व बनाओ और पुनः गम्भीरता से सोचो। तुम ऐसा निर्णय लो, जिससे कुल - गौरव भी सुरक्षित रहे ओर साथ-साथ तुम्हारी भी अच्छी लगे'–श्रेष्ठिवर ने उसे समझाते हुए कहा।
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पिता की स्नेहिल शिक्षा भी पुत्र को विषाक्त लग रही थी। उसके प्राणों में यौवन का उफान सीमा तोड़ने को उतावला हो रहा था। मूढ़तावश वह अपने ही दुराग्रह में अटका हुआ था। उसने साफ-साफ पिताश्री को कह दिया कि मैं किसी भी स्थिति में संकीर्णता के कटघरे में बंधना नहीं चाहता । प्रेम ही जीवन का सबसे बड़ा धन है। वह सदा विराट् और असीम है। उसे कभी सीमा में नहीं बांधा जा सकता। मैंने जो निर्णय लिया है, वह सर्वथा सम्यक् और मेरे लिए अनुकूल है।
इन दो टूक शब्दों के आगे श्रेष्ठी धनदत्त का कुछ कहना अकिंचित्करसा लग रहा था। आज उसकी आशाओं पर पानी फिर गया। स्वप्निल कल्पनाओं के महल ढह गए। जिस पुत्र की चिर- अभीप्सा में ढेर सारी पूजाओं, अर्चनाओं और देव - मनौतियों में समय बिताया, आज वही पुत्र पिता के दिल को दुःखाकर मनमानी कर रहा था। उस आग्रह के कारण उसी दिन वह नट-कन्या के घर पहुंच गया। उसे प्राप्त करने के लिए अपनी मंगलभावनाएं प्रस्तुत कीं। नट - कन्या का पिता इस प्रस्ताव को एक शर्त पर स्वीकार करने को राजी था। उसने कहा- यदि मेरी कन्या के साथ जीना है तो सबसे पहले तुम्हें नटविद्या सीखनी होगी । इलायची कुमार उसके लिए अपना सब कुछ न्यौछावर करने को तत्पर था, फिर नटविद्या सीखनी कौन-सी बड़ी बात थी? उसने इसे सहर्ष स्वीकार कर लिया और एक दिन माता-पिता और प्रचुर सम्पत्ति – सबको छोड़कर घर से बाहर निकल गया । नटकन्या भी उसके प्रेम और यौवन पर मंत्रमुग्ध हो चुकी थी। दोनों का साहचर्य जीवन में नई अभिव्यक्ति दे रहा था । इलापुत्र बुद्धि-सम्पन्न और कार्यपटु नवयुवक तो था ही । कुछ ही दिनों में वह नटविद्या में दक्ष हो गया। एक दिन उसने अपनी बात को नट के सामने रखा। नट ने उसे आश्वस्त करते हुए कहा- जिस दिन तुम अपनी कला से महाराजा को प्रसन्न कर पुरस्कार ग्रहण कर लोगे उसी दिन मैं तुम्हारे विवाह - सूत्र की रस्म अदा कर दूंगा ।
इलापुत्र अब प्रतिदिन गांव-गांव और शहर - शहर में घूमता, अपनी