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लोक भावना
११. उदय : अस्त
यह लोक विपरिणामधर्मा है। इसमें प्रतिक्षण कुछ न कुछ परिवर्तन हो रहा है। परिवर्तनशीलता इस लोक की शाश्वत घटना है। जड़ में भी परिवर्तन हो रहा है और चेतन में भी परिवर्तन हो रहा है। पर उस परिवर्तन से बोधपाठ लेने वाला कोई विरला ही होता है। जैन रामायण का प्रसंग है। मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान् राम चौदह वर्षों का वनवास पूरा कर अयोध्या लौटे। सारा नगर खुशियों से झूम उठा । घर-घर में घी के दीए जलाए गए। भगवान् राम का राज्याभिषेक हुआ । इस खुशी में सभी को कोई न कोई उपहार मिला। किसी को राज्यसत्ता तो किसी को बन्धनमुक्ति । किसी को प्रभुसेवा का अनुग्रह तो किसी को दुःख - विमुक्ति का वर । किसी के लिए सुख - साम्राज्य का द्वार खुला तो किसी को उपलब्ध हुईं ऐश्वर्य - सम्पदा । विभीषण और रामभक्त हनुमान भी उससे कैसे वंचित रह सकते थे? उन्हें भी अपना-अपना अधिकृत क्षेत्र प्राप्त हो गया । महाराजा विभीषण लंका के शासक बने तो पवनसुत हनुमान आदित्यपुर नगर के। सभी प्रसन्नमना अपने-अपने राज्य का कुशल संचालन कर रहे थे।
एक बार हनुमान की रानियों के मन में सुमेरु पर्वत पर क्रीड़ा करने का विकल्प उत्पन्न हुआ। वे अपनी भावनाओं को रोक नहीं सकीं। उन्होंने अपनी प्रार्थना को रामभक्त हनुमान के समक्ष रखा। उन्होंने उनकी प्रार्थना को स्वीकार कर लिया और विमान में बैठकर यात्रा के लिए प्रस्थित हो गए। उनका सारा दिन क्रीड़ा-उत्सव में व्यतीत हुआ । पुनः शाम को लौटने की तैयारियां होने लगीं। सभी रानियां इस क्रीड़ामय दिवस की स्मृति को संजोती हुई विमान में आरूढ़ हुईं और वह विमान आदित्यपुर की ओर चल पड़ा। संध्या का समय । सूरज की सुनहली किरणें अपने आपमें सिमटती हुई दृग्गोचर हो रही थीं। सूर्य अस्ताचल की ओर जा रहा था। पक्षीगण अपने- अपने घोंसलों की ओर लौट