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________________ धर्म भावना १०. दृढ़धर्मी अर्हन्नक प्रभात की ब्राह्मी वेला। जन-जन को प्रबोधित करता हुआ दिनमणि क्षितिज के वातायन से झांक रहा था। रक्तिमा को धारण करती हुई दसों दिशाएं अपनी मांग में सिन्दूर भरने का अभिनय कर रही थीं। मांगलिक समय, मंगलमय यात्रा की तैयारियां। श्रेष्ठिप्रवर आवश्यक कार्यों से निवृत्त होकर कुछ समय पूर्व अपने आसन पर बैठे ही थे कि श्रेष्ठिपुत्र अर्हन्त्रक ने कमरे में प्रवेश किया, चरणों में प्रणत होता हुआ बोला-'पिताश्री! प्रस्थान का समय निकट है, आप कर्तव्यबोध और शुभाशंसा से मुझे अनुगृहीत करें, जिससे मेरी यात्रा सानन्द और निर्विघ्न सम्पन्न हो सके।' पिता ने पुत्र को छाती से लगाते हुए कहा-'वत्स! तू स्वयं ही समझदार है, साहसी है, तुझे कुछ कहना आवश्यक प्रतीत नहीं होता, फिर भी मार्ग लम्बा और सामुद्रिक है, उसमें अन्यान्य खतरे भी बहुत हैं, इसलिए सावधानी और जागरूकता की नितान्त अपेक्षा है। संभवतः तुझे अपने गंतव्य तक पहुंचने में दस दिन का समय तो लग ही जाएगा। तूने अपनी आवश्यकता के लिए और संबल तो जुटाए ही हैं, किन्तु मनोबल को बढ़ाने वाले संबलों पर विशेष ध्यान देना। देव-गुरु-धर्म के प्रति दृढ़ आस्था रखना, धार्मिक अनुष्ठानों की सम्यक् आराधना करते रहना।' अन्त में पिताश्री ने विनोद करते हुए कहा-'और नहीं तो समय-समय पर अपने वयोवृद्ध माता-पिता को ही याद कर लेना।' पुत्र ने पिता के कथन पर कुछ लज्जा का अनुभव करते हुए धीमे से कहा-मैं आपको विस्मृत ही कैसे कर सकता हूं? जो जिसके हृदय में स्थित है, क्या कभी वह उससे विलग हो सकता है? पिता-पुत्र की परस्पर वार्ता चल ही रही थी कि इतने में मां, भाई-बहन आदि परिवार के अन्य सदस्य भी वहां उपस्थित हो गए। प्रस्थान की वेला अब अत्यन्त निकट आ चुकी थी। लगभग
SR No.032432
Book TitleShant Sudharas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2012
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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