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________________ कृत का प्रायश्चित्त १३३ हुआ शिशु अन्तिम श्वास ले रहा था। एक ओर बहता हुआ खून अपनी रक्तिमा से क्रूरता की गाथा गा रहा था तो दूसरी ओर उस निरीह प्राणी का अपने स्वामी के प्रति बलिदान बोल रहा था। उन दोनों के बीच अन्यमनस्कता से खड़ा खड़ा दृढ़प्रहारी दोनों दृश्यों को देख रहा था। इस हृदयद्रावक दृश्य को देखकर कोई भी व्यक्ति दो बूंद आंसू बहा सकता था और इस निर्दयतापूर्ण घटना से किसी का भी पाषाण हृदय द्रवित हो सकता था। दस्युसम्राट् की आंखों की अरुणिमा इस रक्तरंजित तलवार के सामने फीकी - फीकी लग रही थी, चढ़ी हुई भृकुटी मानो मन ही मन अपने दुष्कृत्य पर फूली नहीं समा रही थी । क्रूरता अपनी चरम सीमा तक पहुंच कर कराह उठी । अन्तर्मानस में कुछ रासायनिक परिवर्तन हुआ । क्रोध और अहंकार की आंधी तब तक उपशान्त हो चुकी थी । विवेक चक्षु ने जब अपने आपको देखा तो उसने अपने भीतर तामसिक और आसुरीवृत्तियों को पाया। महादस्यु का कभी नहीं पसीजने वाला क्रूर और पाषाणहृदय आज इस कारुणिक और भयंकर दृश्य को देखकर सहसा द्रवित हो उठा। जिसने अपने जीवन में सैकड़ों हत्याएं कीं, कभी मन पर प्रतिक्रिया नहीं हुई, किन्तु आज इन हत्याओं से सचमुच उसका अन्तःकरण रो रहा था। चेहरे पर पश्चात्ताप की रेखाएं उभर आईं। उसने सोचा- अरे ! जिस घर का मैंने अन्न-जल और नमक ग्रहण किया क्या आज मैं पूरे परिवार की हत्या कर नमकहराम नहीं बन गया हूं? जिसने मुझे अतिथि मानकर उदारचित्त से रहने के लिए स्थान दिया, क्या मैंने उस उपकार का बदला कृतघ्न बनकर नहीं चुकाया है? मैं इतना असहिष्णु कि छोटी-सी बात को भी सहन नहीं कर सका। मैं जिसे मार रहा हूं, क्या वह मैं स्वयं नहीं हूं? धिक्कार है मेरी इस कृतघ्नता को । धिक्कार है मेरी खलता और दुष्टता को, जिसने कितने लोगों को पीड़ित किया । हाय! मैं कितना नराधम और नरपिशाच हूं? मैंने कितने निरपराधप्राणियों की हत्याएं कीं, कितनी अबलाओं का सुहाग लूटा, कितने जनों को बेघरबार किया और न जाने अपने स्वार्थ के लिए कितने लोगों को सताया। उन अपराधों के लिए मुझे कौन माफ करेगा? क्या मैं स्वयं उन सबके लिए उत्तरदायी नहीं हूं? क्या दुष्कृत्यों के बोझ से दबा नहीं जा रहा हूं? उनसे उबरने का उपाय क्या हो सकता है ? सहसा मन में चिन्तन आया कि कहीं पर्वत की कन्दराओं और जंगल में चला जाऊं, अपने आपमें समाधिस्थ हो जाऊं । स्वतः ही मैं बन्धनमुक्त हो जाऊंगा । पुनः चिन्तन बदला और सोचा- नहीं, नहीं, ऐसा करना स्वयं की कायरता है, दुर्बलता है और जिन लोगों को मैंने सताया, पीड़ित किया और नानाविध कष्ट दिए वे सब लोग तो नगर में ही रहते हैं। मुझे अपने कृत का मैं
SR No.032432
Book TitleShant Sudharas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2012
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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