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शान्तसुधारस
प्रति किसी भी प्रकार का कोई आकर्षण था। वे आत्मानुभव करते हुए शरीर का व्युत्सर्ग कर चुके थे। शरीर में अपार कष्टानुभूति होने पर भी कभी उनकी समता खंडित नहीं हुई। वे इस नश्वर शरीर के भीतर भी आत्मा की अमरता का दर्शन कर रहे थे। वे सोच रहे थे कि जो कुछ भी कष्ट है वह सब इस पौद्गलिक शरीर को है, आत्मा में कष्ट है ही कहां? उनकी कष्ट-सहिष्णुता दूसरों के लिए अनुकरणीय और श्लाघनीय थी। जब उनकी कष्ट-सहिष्णुता का सौधर्मेन्द्र ने साक्षात्कार किया तो वे भी देवपरिषद् में उसकी चर्चा किए बिना नहीं रह सके। पुनः दोनों देव वैद्य का रूप बनाकर परीक्षा के लिए मर्त्यलोक में आ पहुंचे और मुनि सनत्कुमार से प्रार्थना करते हुए बोले-प्रभो! आपकी असाध्य और कष्टजनित बीमारी को देखकर हम करुणा से आर्द्र हो रहे हैं, लगता है आपने अभी तक कोई उपचार नहीं किया। हमारे पास बहुमूल्य और प्रभावक औषधियां हैं, जिनका आसेवन निश्चित ही आपको रोगमुक्ति दे सकेगा। कृपा कर आप हमें उपकृत करें, चिकित्सा करने का अवसर दें और 'शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्' की उक्ति को विस्मृत न करें। मुनि सनत्कुमार अहंकार और ममकार के चक्रव्यूह का भेदन कर यथार्थ के आलोक को पा चुके थे, अतः उन्होंने उत्तर देते हुए कहा-वैद्यवरो! तुम्हारा कथन और मेरा चिन्तन परस्पर विसंगत-सा लग रहा है। मैं शरीर हूं ही कहां? मैं जो कुछ हूं उसे तो उपलब्ध हो
चुका हूं। चैतन्यानुभूति होने पर शरीर के कष्ट का संवेदन और मूर्छा की प्रतीति होती कहां है? मैं शरीर-व्याधि को जानता हआ भी भोग नहीं रहा है। मैं
चैतन्यधारा के उस धरातल पर खड़ा हूं, जहां आधि, व्याधि और उपाधि की परिधि समाधि के केन्द्र में सिमट गई है। यदि शरीर की नीरोगता को चाहता तो मैं पहले ही उस बीमारी को मिटा लेता। इतना कहकर मुनि सनत्कुमार ने तत्काल अंगुलि से थूक निकाला और उसे अपने रोगग्रस्त शरीर पर लगाया। मुनि की लब्धि से शरीर का वह भाग कंचनमय होकर स्वस्थ हो गया। मुनि ने प्रश्नचिह्न उपस्थित करते हुए वैद्यों से कहा-कहां है तुम्हारी औषधि में इतना सामर्थ्य? यदि नहीं है तो फिर मेरी चिकित्सा कैसे? मुनि का यह प्रश्न अनुत्तरित था और वैद्य प्रणत थे उनके लब्धि-सम्पन्न चमत्कार से। मन ही मन उन्होंने मुनि की श्लाघा और स्तवना की और फिर चले अपने गन्तव्य की ओर। मुनि सनत्कुमार आत्मरमण और ऊर्ध्वारोहण करते हुए नश्वर और अशुचिमय देह का विलोडन कर परमार्थ का नवनीत निकाल रहे थे और उद्घाटित कर रहे थे चिरन्तन सत्य को–'आत्मा की आराधना ही केवल अनुपम सार।'