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________________ अन्यत्व भावना ५. भेदविज्ञान शरद् ऋतु का निरभ्र आकाश ! मीठा-मीठा शीत अपने शैत्य से लोगों को पराभूत कर रहा था। सूर्य का आतप शरीर को रुचिकर लगता हुआ जनजन के लिए प्रिय बना हुआ था। चातुर्मासिक प्रवास की परिसंपन्नता । वर्षा ऋतु समाप्त हो चुकी थी । चारों ओर भूमि मानो हरी साड़ी पहने हुए उल्लसित दिखाई दे रही थी । कृषक लहलहाते खेतों को देखकर मन ही मन मोद मना रहे थे। कहीं फसलों को काटे जाने की तैयारियां की जा रही थीं तो कहीं फसलें काटी जा चुकी थीं। कहीं अन्न को तुष से पृथक् किया जा रहा था तो कहीं पुनः रबी की फसल को बोया जा रहा था। आचार्य सीलंगधर अपनी शिष्य मण्डली के साथ चतुर्मास संपन्न कर विहार कर रहे थे। वे ग्रामानुग्राम विहार करते हुए अपनी पीयूषवाणी से जनता को उद्बोधित कर रहे थे। उनके सभी शिष्य प्रतिभासंपन्न, मेधावी और आचारकुशल थे। किन्तु उनमें से एक शिष्य अपनी अल्पज्ञता पर मन-ही-मन क्षुब्ध बना हुआ था। बार-बार पुनरावर्तन करने पर भी वह पाठ को कठिनता से याद कर पाता और याद हो जाने पर शीघ्र ही विस्मृत हो जाता। एक ओर बुद्धि की मन्दता थी तो दूसरी ओर अपने सतीर्थ्य मुनियों से पीछे रहने का खेद था। आचार्य उसकी जड़ता को मिटाने का पुनः पुनः प्रयास कर रहे थे। कभी उसकी हीनता मिटाने के लिए उसे उत्साहित करते तो कभी अतिरिक्त वात्सल्य देते हुए सहज और सरल भाषा में शिक्षाबोध कराते । एक बार आचार्य ने उसे दो वाक्यों का एक सीधा - सुबोध पाठ पढ़ाया- 'मा तुष', 'मा रुष'। उसका अर्थ था कि न कभी राग करो और न कभी द्वेष । शिष्य ने पाठ को पढ़ा और उसे याद करने लगा । चिरकाल के बाद किसी प्रकार वह पाठ
SR No.032432
Book TitleShant Sudharas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2012
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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