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अमरत्व की खोज
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रुदन के स्वर हैं। जीवन की लीला बड़ी विचित्र है। दैवयोग से जिस शिशु का अभी-अभी कुछ समय पूर्व जन्म हुआ था, उसी को इस क्रूर मृत्यु ने उठा लिया है। पुत्र! गाने वाला कोई दूसरा नहीं है। जिस पुत्र की खुशी में जो कौटुम्बिकजन इतना अधिक आनन्दोत्सव मना रहे थे, वे ही अब उसके शोक में विलाप कर रहे हैं।
शिशु बोला-ओह! अभी जन्मा और अभी मर गया!
'बेटे! इसमें किसी का वश नहीं चलता। जिसका संयोग होता है, निश्चित ही एक दिन उसका वियोग भी होता है।' ___ 'तो क्या मां! मैं भी मरूंगा?'
'पुत्र! अनिवार्यता को टाला नहीं जा सकता, फिर इसमें तू और मैं बचेंगे ही कहां? बेटा! जन्म और मरण जीवन के दो शाश्वत बिन्दु हैं। एक आदि बिन्दु है तो दूसरा अन्तिम बिन्दु। संसार में परिभ्रमण करने वाला प्रत्येक प्राणी इन दोनों बिन्दओं का स्पर्श करता है। उसका सारा जीवन इन्हीं दो तटों के बीच प्रवाहित रहता है, फिर इससे छुटकारा पाना कैसे संभव हो सकता है?
__पुत्र का मन मृत्यु के भय से उद्विग्न हो गया। वह कातरदृष्टि से मां की ओर निहारता हुआ अकुलाहट का अनुभव कर रहा था। उसने मन-ही-मन सोचा-क्या सचमुच मुझे भी मरना पड़ेगा? क्या वास्तव में यह सत्य है? क्या यह संसार ऐसा दारुण है, जहां कोई भी सुख नहीं? क्या यह जीवन चिरकाल तक जन्म-मरण और जरा से परिक्लान्त होता रहेगा? क्या इस दुःख से उबरने का कोई उपाय भी है या यूं ही इस संसार में परिभ्रमण करता रहूंगा? नहीं, नहीं, ऐसा नहीं हो सकता। मुझे कोई न कोई उपाय ढूंढ़ना ही होगा। मां का कथन बार-बार उसके कोमल हृदय को झकझोर रहा था और मन की टीस अपाय में से उपाय खोजने का प्रयत्न कर रही थी। अन्ततः निरुपाय सत्यजिज्ञासु बालक ने समाधान की भाषा में मां से पुनः पूछ ही लिया मां! यह संसार की परम्परा क्या सबके लिए समान है? क्या कोई अपवाद भी है? वत्स! सबके लिए एक ही नियम है और एक ही परम्परा है। कोई भी उससे वंचित नहीं है। यदि कोई अपवाद है तो वे हैं भगवान् अरिष्टनेमि। उन्होंने जन्म-मृत्यु की परम्परा को विच्छिन्न कर दिया है। वे वीतराग, सर्वज्ञ और महाश्रमण हैं। वे ही दुःख मिटाने में सक्षम हैं। उनकी शरण लेने वाला सब दुःखों से त्राण पा सकता है। उनकी शरण लेने वाला जातिपथ के परिभ्रमण से मुक्त हो सकता है और उनकी शरण लेने वाला जन्म-मरण के चक्रव्यूह को