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शान्तसुधारस लोग कितने भाग्यशाली हैं जिनका आंगन बच्चों की क्रीड़ा से रमणीय है। वे माता-पिता कितने सुखी हैं जिनकी गोद सन्तान से भरी रहती है। आज ही मैं कार्यवश किसी धनिक के घर गया था। वहां क्रीड़ारत नन्हे-मुन्ने बच्चों को देखकर सहसा मेरा अन्तःकरण विह्वल हो उठा। कोई उन्हें लाड़-प्यार से खिला रहा था तो कोई उनके साथ आमोद-प्रमोद कर रहा था। सारा घर बच्चों की किलकारियों, मधु-मुस्कान और मधुर क्रीड़ा से मधुरमय बना हुआ था। वह दृश्य सचमुच कितना सुखद और लुभावना था! काश! आज यदि मैं तुम्हारी सूनी गोद को हरी-भरी देखता और अपने गृह-प्रांगण में क्रीड़ा करते हुए अपनी सन्तान को पाता तो शायद न तुम्हें कहने का अवसर आता और न ही मेरी प्रसन्नता भंग होती।
पतिदेव! लगता है आज आप बहकी-बहकी बातें कर रहे हैं। हम भगवान महावीर के अनुयायी हैं, श्रमणोपासक हैं, जैन धर्म में हमारा विश्वास है और हम कर्मसिद्धान्त को मानने वाले हैं, फिर सन्तान को प्राप्त करना क्या हमारे हाथ की बात है? इतना कुछ करने पर भी यदि हमारी मनोभावना सफल नहीं होती है तो इसे कोई अशुभ योग ही मानना चाहिए। यदि कुछ होने का होता तो आज तक हो ही जाता, फिर क्यों आपका देवी-देवताओं को मनाने का प्रयत्न विफल जाता? इसलिए हमें अन्यान्य उपायों को छोड़कर निर्ग्रन्थ प्रवचन की आराधना करनी चाहिए। जिस दिन शुभ का योग होगा, स्वतः ही सब कुछ मिल जाएगा, फिर न हमें खिन्न होने की आवश्यकता है और न ही देवी-देवताओं को मनाने की। क्या हम एक अभाव के कारण अपनी रही-सही खुशियों को भी छोड़ दें, घर के कार्य को चौपट कर दें और इतने अधीर हो जाएं? यह अपने आपमें कोई बुद्धिमत्ता और समझदारी नहीं है। अतः आप व्यर्थ की बातें छोड़कर यथार्थता का अनुभव करें। भोजन का समय है, अतः मस्तिष्क को उलझनों से मुक्त रखकर भोजन के लिए चलें।
सुलसा की सहानुभूति और यथार्थ वचनों से नागरथिक कुछ सान्त्वना का अनुभव कर रहा था। उसका भारी मन उसकी प्रेरणा से हल्का हुआ। वह भोजन के लिए उठा और सुलसा के साथ रसोईघर की ओर चल दिया। सहसा पीछे से कानों में एक आवाज सुनाई दी। मुड़कर देखा तो एक महामुनि मुख्य द्वार से प्रविष्ट होकर उन्हीं की ओर आ रहे थे। वे महामुनि ब्रह्मचर्य के तेज से देदीप्यमान थे। वे प्रणतदृष्टि से धीरे-धीरे चल रहे थे। उनके अंग-प्रत्यंग में सौकुमार्य तथा लावण्य टपक रहा था। महामुनि को देखकर सुलसा हर्षोत्फुल्ल