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हमारा प्रतिपाद्य है जीव और पुद्गल के बारे में चिंतन जो शरीर और मनस की मान्यता से आंशिक रूप से तुलनीय है । व्यवहार के स्तर पर कभीकभी मन को चेतना के रूप में समझ लिया जाता है किन्तु वस्तुवृत्या मन पुद्गल रूप ही है। अतः जीव और पुद्गल भिन्न-भिन्न हैं ।
रेने देकार्त ने मांइड और बॉडी, मनस (आत्मा) और शरीर - दोनों की क्रिया, स्वभाव और स्वरूप में भिन्नता का प्रतिपादन किया है। जड़ का लक्षण विस्तार है और चेतन का लक्षण है विचार | उसने कहा
The mind or soul of a man is entiraly different from body. देकार्त ने घोड़ा और घुड़सवार के उदाहरण से इस सिद्धान्त को पुष्ट किया है। घुड़सवार एड़ लगाकर घोड़े की गति में वेग उत्पन्न करता है। वैसे ही मन भी शारीरिक क्रियाओं को उत्तेजित करता है। घोड़े को अपनी इच्छा के अनुकूल गतिशील देखकर घुड़सवार प्रसन्न होता है। वैसे ही शरीर की गति देखकर आत्मा भी प्रसन्नता की अनुभूति करता है ।
देकार्त के इस स्पष्टीकरण में दृष्टान्त और द्राष्टान्त का अंतर है। घोड़े और घुड़सवार का दृष्टान्त ठीक नहीं जंचता, क्योंकि दोनों का उद्देश्य समान है जबकि जड़-चेतन में किसी प्रकार का साम्य नहीं, परस्पर विरोधी हैं। इसलिये देकार्त के अन्तर्क्रियावाद में कठिनाइयां आती हैं
शरीर की कुछ क्रियाओं में मानसिक क्रिया क्यों नहीं होती ? जैसे
१. रक्त प्रवाह शारीरिक क्रिया है पर मन उससे प्रभावित नहीं होता । न कोई प्रतिक्रिया भी करता है।
२. आत्मा अमूर्त है तो पीनियल ग्लैण्ड में कैसे रह सकती है?
३. शरीर और आत्मा एक दूसरे के विरुद्ध हैं तो आपस में अन्तर्क्रिया कैसे होती है ? और एक में क्रिया होने से दूसरे में प्रतिक्रिया करने की भावना पैदा क्यों नहीं होती ?
देकार्त इन प्रश्नों का समुचित समाधान नहीं दे सका । जीवनभर इस विषय पर चिन्तन किया मगर निश्चित निष्कर्ष पर नहीं पहुंच पाया। अतः देहात्मवाद की समस्या उसके दर्शन की उलझी हुई समस्या है।
देहात्मवाद पर भिन्न-भिन्न विचार प्रकाश में आये। उन्हें चार भागों में विभक्त किया गया है
पाश्चात्य एवं जैन दर्शन का प्रस्थान समन्वय की भूमिका
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